Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ
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प्रश्न – सम्यग्दृष्टि को चतुर्थादि गुणस्थानों में अशुभभाव भी होता है, तथापि यहाँ स्वरूपाचरण को शुभमिश्रित ही क्यों कहा? अशुभ की बात क्यों नहीं की?
उत्तर :- सम्यग्दृष्टि के अशुभ की प्रधानता नहीं है, शुभ की प्रधानता है; इसलिए अशुभ की गणना नहीं की। आगम में अशुभ की प्रधानता . मिथ्यादृष्टि को ही मानी गई है। सम्यग्दृष्टि को चतुर्थ-पंचम-षष्ठम गुणस्थान में शुभोपयोग की प्रधानता है, साथ में शुद्धपरिणति भी होती है; अतः उसके शुद्ध के साथ शुभ का ही मिश्रपना माना गया है। देखो! इसमें यह बात भी आ गई कि सम्यग्दृष्टि का शुभोपयोग भी अशुद्ध ही है, वह धर्म नहीं है।
प्रश्न :- यहाँ साधक के मिश्रव्यवहार को शुभोपयोगमिश्रित कहा; परन्तु ऊपर बारहवें गुणस्थान में शुभोपयोग तो है नहीं, तब मिश्रव्यवहार कैसे है?
उत्तर :- वहाँ शुभोपयोग नहीं है, यह बात तो ठीक है; परन्तु अभी ज्ञान-दर्शन-वीर्य-आनन्द आदि अपूर्ण हैं, अर्थात् ज्ञान के साथ औदयिक अज्ञान भी है; इस अपेक्षा से वहाँ भी मिश्रव्यवहार समझना। सिद्धान्त में अज्ञान का उदय बारहवें गुणस्थान तक कहा है और असिद्धत्वरूप औदयिकभाव चौदहवें गुणस्थान तक है। जब तक उदयभाव है, तब तक संसार है और जब तक संसार है, तब तक व्यवहार है।
केवली भगवान के शुद्धव्यवहार है, वह कैसा है? केवलज्ञान सहित शुद्धस्वरूपाचरणरूप शुद्धव्यवहार है। उनके अब साधकपना रहा नहीं
और सिद्धपद भी अभी प्राप्त हुआ नहीं, किन्तु साध्यरूप परम-इष्ट परमात्मदशा उन्हें प्रकट हो गई है; अतः अरिहन्तों के शुद्धस्वरूपाचरणरूप शुद्धव्यवहार होता है।
प्रश्न :- शुद्धस्वरूपाचरण तो सिद्ध भगवान के भी होता है, ऐसी दशा में उनके भी शुद्धव्यवहार क्यों नहीं कहते?