Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ
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अतः दोनों के भाव स्वतंत्र हैं, उनमें मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हैं, अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है।
द्रव्य सो निश्चय और पर्याय सो व्यवहार; अर्थात् द्रव्य निश्चयकारण है और पर्याय व्यवहारकारण हैं। जैसे- मोक्षमार्ग की पर्यायरूप से परिणमित शुद्धात्मद्रव्य निश्चय से मोक्ष का कारण है अर्थात् उसको कारणसमयसार' कहा है और पर्याय का भेद करके कहने पर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धरत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहा है। इसप्रकार अभेदद्रव्य का कथन करना निश्चय है और पर्याय के भेद का कथन करना व्यवहार है। ___ मोक्षमार्ग के प्रसंग में अभेदद्रव्य को मोक्ष का साधन कहना निश्चय है और मोक्षमार्ग की शुद्धपर्याय को मोक्ष का साधन कहना व्यवहार है। इस व्यवहार में जो रत्नत्रय हैं, वह यद्यपि निश्चयरूप शुद्ध है, तथापि तीन भेद होने से व्यवहार कहा गया है। रागरूप व्यवहाररत्नत्रय को मोक्ष का साधन कहना तो मात्र उपचार है और वह उपचार भी ज्ञानी को ही होता है, अज्ञानी को तो उपचार रत्नत्रय भी नहीं है।
अशुद्धपरिणतिरूप से परिणमित अज्ञानी जीव को अशुद्ध परिणति है, वह उसका व्यवहार है। वह अशुद्धव्यवहार है और उस अशुद्धपरिणति से परिणमित द्रव्य अशुद्धनिश्चयात्मक द्रव्य है। इस अशुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य को सहकारी अशुद्धव्यवहार है। देखो! यहाँ पर निमित्त के सहकार की बात नहीं ली गई है। द्रव्य को तो उस-उस समय वर्तनेवाली अपनी पर्याय का सहकार है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्वअवस्था के समय आत्मा को अशुद्धपरिणति के सहकार से अशुद्ध कहा है, परन्तु कर्म के सद्भाव के कारण आत्मा को अशुद्ध नहीं कहा गया है।
साधकजीव को शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपरिणति है, ऐसी मिश्रपरिणतिरूप से द्रव्य स्वयं परिणमित हुआ है। अतः उसे मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य और उसको सहकारी उसकी परिणति को मिश्रव्यवहार कहा है।