Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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परमार्थवचनिका प्रवचन ___ साधक की आत्मा मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य है। सम्यग्दृष्टि साधक को शुद्धद्रव्य का भान हुआ है, उसकी परिणति कुछ तो शुद्धतारूप परिणमित हुई है और कुछ अशुद्धतारूप परिणमित हो रही है। इसप्रकार उसकी शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपरिणति है और इस मिश्रपरिणति के सहकार से उस द्रव्य को (चौथे से बारहवें गुणस्थान तक) मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य कहते हैं। उसप्रकार की परिणति से द्रव्य स्वयं परिणमित हुआ है। अतः उस परिणति के सहकार से उस द्रव्य को भी वैसा कहा।
जिनकी परिणति पूर्ण शुद्धरूप से परिणमित हुई है, ऐसे केवलज्ञानी भगवन्तों की आत्मा को (तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में) शुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य कहा है। _ स्वभाव से तो वस्तु शुद्ध ही है; परन्तु अवस्था में भी शुद्धरूप से परिणमन करे तब ही शुद्ध कहने में आती है। समयसार की छठी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है :
"एष एवाशेषद्रव्यांतरभावेभ्यः भिन्नत्वेनोपास्यमानत्वेन शुद्ध इत्यभिलप्यते। ___ यही आत्मा समस्त परद्रव्य के भावों से भिन्नपने सेवन किया गया शुद्ध – ऐसा कहा जाता है।"
अज्ञानी जीव शुद्धस्वभाव की उपासना नहीं करता, वस्तु को अशुद्धभावरूप ही अनुभव करता है तथा अशुद्धतारूप ही परिणमन करता है; इसलिए उसे अशुद्ध कहा जाता है। __अशुद्ध, मिश्र अथवा शुद्धपरिणतिरूप से द्रव्य स्वयं परिणमन करता है, अतः वह परिणति उसका व्यवहार है और उसरूप से परिणमित हुआ द्रव्य निश्चय है। ऐसा निश्चय-व्यवहार प्रत्येक जीव में वर्तता है।
जीव के निश्चय-व्यवहार जीव में ही समाये हुए हैं। पुद्गल की परिणति – वह पुद्गल का व्यवहार है और जीव की परिणति – वह जीव का व्यवहार है। जीव के भाव जीव में और पुद्गल के भाव पुद्गल में हैं।