Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ
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शुद्ध-अशुद्ध ऐसे भेदरहित एकरूप शुद्ध ज्ञायक है, और जो यह ज्ञायकस्वभाव विकाररूप नहीं हुआ - वह सम्यग्दर्शन का विषय है। पर्याय में शुद्धअशुद्धपना आदि प्रकार हैं। जब ऐसा ज्ञायकस्वभाव उपास्य बनाया जावे तब पर्याय शुद्ध होती है और जब इस स्वभाव को भूलकर विकार में ही लीनता रहे, तब पर्याय अशुद्ध होती है। इस शुद्ध अथवा अशुद्ध पर्याय के साथ अभेदता से द्रव्य को भी शुद्ध, अशुद्ध अथवा मिश्र कहा गया है; क्योंकि उस-उस काल में वैसे भावरूप द्रव्य स्वयं परिणमा है, द्रव्य का ही वह परिणमन है, द्रव्य से भिन्न किसी अन्य का परिणमन नहीं है।
देखो! साधकदशा में शुद्धता और अशुद्धता दोनों ही एक साथ एक ही पर्याय में हैं; तथापि दोनों की धारा भिन्न-भिन्न है, शुद्धता तो: शुद्धद्रव्य के आश्रय से है और अशुद्धता पर के आश्रय से है-दोनों की जाति जुदी है। दोनों साथ होने पर भी जो अशुद्धता है, वह वर्तमान में प्रगट हुई शुद्धता का नाश नहीं कर देती-ऐसी मिश्रधारा साधक के होती है।
तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में केवलीभगवान पूर्ण यथाख्यात चारित्र के बल से शुद्धात्मस्वरूप में ही रमणशील हैं। यद्यपि यथाख्यातचारित्र तो बारहवें गुणस्थान में ही पूर्ण था, परन्तु वहाँ अभी केवलज्ञान नहीं था; अब केवलज्ञान और अनन्तसुख प्रगट होने से पूर्ण इष्टपद की प्राप्ति हुई। साध्य था, वह सध गया और आवरण का अत्यन्त अभाव हो गया; इसलिये शुद्धपरिणतिरूप शुद्धव्यवहार कहा। तेरहवें गुणस्थान में योगारूढ़ दशा अर्थात् योगों का कम्पन है और चौदहवें में कम्पन नहीं है; परन्तु वहाँ अभी असिद्धत्व है अर्थात् संसारीपना है, अतः वहाँ तक व्यवहार कहा गया है। सिद्ध भगवान संसार से पार हैं, इसलिये वे व्यवहारातीत हैं। जहाँ तक असिद्धपना है, वहाँ तक व्यवहार है, सिद्धजीव व्यवहारविमुक्त हैं। वैसे तो दृष्टि अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को भी व्यवहार-विमुक्त कहा है, परन्तु यहाँ तो परिणति अपेक्षा से बात है। जहाँ तक संसार है,