Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ 14 परमार्थवचनिका प्रवचन ___ कुछ लोग कहते हैं कि जगत में अनन्त जीवों की सत्ता भिन्न-भिन्न नहीं है, सब मिलकर एक ही अद्वैतब्रह्म है; किन्तु यहाँ तो सर्वज्ञ भगवान परमेश्वरदेव कहते हैं कि जगत में अनन्त जीवों की पृथक्-पृथक् सत्ता है और प्रत्येक के परिणाम भिन्न-भिन्न, विचित्रता सहित हैं - कितना भारी अन्तर हैं? जो अपना परिपूर्ण सर्वसम्पन्न स्वतंत्र अस्तित्व न माने, वह परिपूर्णता को कैसे प्राप्त कर सकेगा? प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व, परिणाम की अनन्त प्रकार की विचित्रता और उस विचित्रता में निमित्तरूप कर्मों की भी अनन्त विचित्रता यह सब भगवान सर्वज्ञदेव के शासन के अलावा अन्यत्र कहीं भी नहीं है। ___ परिणामों की विचित्रता के इस प्रसंग में प्रश्न है कि जब प्रत्येक संसारी जीव के परिणामों में विचित्रता है तथा संसार में किन्हीं दो जीवों के परिणाम सर्वप्रकार से समान नहीं होते हैं तो अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रसङ्ग में यह क्यों कहा जाता है कि इस गुणस्थान में सभी जीवों के परिणाम समान ही होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि चारित्र सम्बन्धी परिणामों की शुद्धता की अपेक्षा ही वहाँ समानता कही है, तथा वहाँ भी अन्य सभी परिणामों की अपेक्षा समानता नहीं जाननी चाहिए। ज्ञानादि अन्य परिणामों तथा अघातिकर्मों सम्बन्धी दूसरे अनेक भावों में वहाँ भी विचित्रता है, भिन्नता है। इसी गुणस्थान में किसी जीव को चार, किसी को तीन और किसी को दो ही ज्ञान होते हैं। किसी जीव की अल्पायु, किसी की दीर्घायु, किसी जीव की एक धनुष की और किसी की पाँच सौ धनुष की अवगाहना होती है; तथा कोई एकावतारी, कोई तद्भव मोक्षगामी और कोई अर्द्धपुद्गल परावर्तन तक भ्रमण करने वाला भी हो सकता है - इसप्रकार अनेक प्रकार की विचित्रता होती है। संसार में किन्हीं दो जीवों के परिणामों में कदाचित् किसी विशिष्ट प्रकार की अपेक्षा तो समानता हो सकती है; परन्तु सर्वप्रकार से समानता कभी नहीं होती।

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