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पुरुषोत्तम तथा महाप्रधानपुत्र श्री देवधर (क्र. ४६), जयवर्मन् द्वितीय का महाप्रधान राजा अजयदेव (क्र. ७२) । कुछ अभिलेखों में महाप्रधान राजपुत्र (क्र. ७१), महाराजपुत्र (क्र. ४८) एवं राजपुत्र (क्र. ४६, ७१) आदि के उल्लेख मिलते हैं । महासंधिविग्रहिक
महासंधिविग्रहिक नामक मंत्री साम्राज्य के युद्ध व संधि विभाग का मुख्य अधिकारों होता था। वह एक विशिष्ट कूटनीति विशारद तथा श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ होता था । वह समय समय पर मित्रराज्यों के राजदूतों से मंत्रणा करता था। राजदूतों को नरेश के सन्मुख उपस्थित करता था। शत्रु नरेशों के दूतों के साथ यथायोग्य व्यवहार करता था। राजाज्ञाओं को निस्सृत करवाता था। महासंधिविग्रहिक के पद पर विशिष्ट विद्वान ही नियुक्त होते थे। नरेश अर्जुनवर्मन् के समय में विल्हण इस पद पर नियुक्त था। बाद में राजा सल्लखण उसके स्थान पर नियुक्त हुआ (क्र. ६०, ६१)।
परमार नरेशों के अधीन उनके माण्डलिक भी अपनी राजसभा में संधिविग्रहिक नियुक्त करते थे। नरेश भोजदेव के माण्डलिक यशोवर्मन् की राजसभा में योगेश्वर इस पद पर नियुक्त था (क्र. १८) । इसी प्रकार वागड शाखा के विजयराज की सभा में श्रीवामन इस पद पर नियुक्त था (एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ ५४, श्लोक २९)। महासंधिविग्रहिक के उल्लेख अभिलेख क्र.१८, ५८, ६०, ६१, ६५ एवं ७० में भी प्राप्त होते हैं। महादण्डनायक
समकालीन विशिष्ट लेखक धनपाल कृत तिलकमञ्जरी में महादण्डनायक नामक अधिकारी के लिए विभिन्न नाम मिलते हैं, यथा दण्डनायक, महादण्डाधिपति, वाहिनीपति, सैन्यपति, सेनाधिप आदि। इससे विदित होता है कि प्रधानतः वह सेनाध्यक्ष होता था, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उसको आन्तरिक शांति स्थापना एवं व्यवस्था बनाए रखने का कार्य भी सौंपा जाता था । एक अभिलेख (क्र. ७९) में दण्डनायक का उल्लेख प्राप्त होता है। तिलकमञ्जरी से ज्ञात होता है कि भोजदेव के समय में साम्राज्य में उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ नामक दो भाग थे। इन दोनों भागों के लिए अलग अलग दो दण्डनायक नियुक्त थे। इस प्रकार भोजदेव के शासनकाल में प्रशासनिक व्यवस्था को सक्रिय बनाए रखने के लिए प्रशासन को विभागों में विभक्त किया गया था तथा प्रत्येक क्षेत्र में विभागीय अधिकारी नियुक्त किए गए थे। महाप्रतिहार
तिलकमञ्जरी में इस अधिकारी को दौवारिक भी कहा गया है (पृष्ठ ५८, पंक्ति १०)। परमार राजसभा में महाप्रतिहार नामक अधिकारी का उच्च स्थान था। वह सदा नरेश की सेवा में रहता था। इस कारण वह नरेश पर काफी प्रभाव रखता था। तिलकमञ्जरी में उसके विभिन्न कर्तव्यों के उल्लेख मिलते हैं। वह वाचाल व्यक्तियों को प्रतिबंधित रखता था तथा सभी राजकर्मचारियों पर निरंतर दृष्टि रखता था । वह अवांछित तत्वों को राज्य के बाहर निकाल देता था । वह राजदरबार में उपस्थित विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति योग्य शिष्टाचार प्रदर्शित करता था। साथ ही वह राजकीय उत्सवों के लिए समुचित आयोजन करता था। इस प्रकार महाप्रतिहार के पद पर कार्यरत व्यक्ति के लिये प्रतिभा सम्पन्न, युक्ति निपुण, आकर्षक व्यक्तित्व युक्त एवं विनीत होना अनिवार्य था । अभिलेख क्र. ७२ में प्रतिहार का उल्लेख प्राप्त होता है।
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