Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ [2] युक्ति-प्रयुक्तियों का आश्रयण किया है। जिसके फलस्वरूप उनका व्याकरण, एक 'तन्त्र' (Machine) के रूप में परिवर्तित हो गया है । 0.2 त्रिविध आयामों से "तन्त्र" का निर्माण : ___'अष्टाध्यायी' व्याकरण को एक 'तन्त्र' का स्वरूप देनेवाले त्रिविध आयाम निम्नवत् हैं :(क) लाघवसाधक युक्ति-प्रयुक्तिओं का प्रयोग : जिस में प्रत्याहार, अनुवृत्ति, गणपाठ, अनुबन्ध, घि, नदी इत्यादि कृत्रिम संज्ञाओं का परिगणन किया जाता है । (ख) सूत्रों के पारस्परिक बाध्य-बाधकभाव का निर्धारण : जिस में (१) अष्टाध्यायी ग्रन्थ का सपाद-सप्ताध्यायी एवं त्रिपादी में विभाजन, अर्थात् सूत्रों के बीच पूर्वत्व-परत्वभाव, एवं सिद्ध-असिद्ध भाव; (२) अन्तरङ्ग–बहिरङ्गभाव और . (३) सूत्रों में उत्सर्गापवादभाव इत्यादि निर्धारित किये गये हैं । (ग) वाक्यनिष्पत्ति की सुदृढ़ प्रक्रिया का प्रदर्शन : जिस में, वाक्यनिष्पत्ति को प्रमुख उद्देश्य बनाकर सुनिश्चित प्रक्रिया का निरूपण किया गया है एवं तदन्तर्गत, प्राथमिक स्तर पर पदत्व संपादक-विधिओं का प्रदर्शन करते हुए, द्वितीय स्तर पर पदोद्देश्यक-विधियाँ प्रस्तुत की गई हैं । पाणिनीय व्याकरण के इन त्रिविध आयामों ने ही, उसको एक 'तन्त्र' (word or sentence producing machine) का रूप दे दिया है। यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि इस पाणिनीय व्याकरणतन्त्र के लिए वाक्यनिष्पत्ति ही अन्तिम साध्य या लक्ष्य है । उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लाघवसिद्धि के उपाय एवं सूत्रों का पारस्परिक बाध्यबाधकभाव प्रकट करनेवाले उपाय केवल साधन स्वरूप ही हैं । प्रस्तुत व्याख्यान में पाणिनीय-व्याकरण का एक 'तन्त्र' के रूप में पूरा परिचय देना अभीष्ट नहीं है; परन्तु इसका चक्रवत् निरन्तर घूमते हुए एक 'तन्त्र' के रूप में परिचय देना ही अभीष्ट है । अतः पूर्वोक्त (क) एवं (ख) बिन्दुओं पर विचार नहीं किया जायेगा । 1.0 पाणिनीय व्याकरण में रूपाख्यान-पद्धति : प्रथम व्याख्यान में कहा गया है कि पाणिनि का व्याकरण पृथक्करणात्मक नहीं है, बल्कि प्रकृति और प्रत्यय के संयोजन की प्रक्रिया सिखाने वाला व्याकरण है । किसी भी 'वाक्य' में अविनाभाव सम्बन्ध से जुड़े हुए सुबन्त एवं तिङन्त पदों की रूपसाधनिका के जो पाँच सोपान पाणिनीय व्याकरण में दृष्टिगोचर होते हैं वह निम्नवत् हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98