Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 93
________________ [84] इसी तरह से, यस्य च भावेन भावलक्षणम् । २-३-३७ सूत्र से भावलक्षणा (सति) सप्तमी विभक्ति का विधान किया गया है । इस सूत्र के सन्दर्भ में सप्तम्यधिकरणे च । २-३-३६ सूत्र के भाष्य में तीन वार्तिक लिखे हैं :- (१) कारकार्हाणां च कारकत्वे । (वा० ३); (२) अकारकार्हाणां चाकारकत्वे । (वा० ४) एवं (३) तद्विपर्यासे च । (वा० ५) ॥ [सिद्धान्तकौमुदीकारने इन तीनों वार्तिकों को मिला कर एक ही वार्तिक प्रस्तुत किया है :★ अर्हाणां कर्तृत्वेऽनर्हाणाम् अकर्तृत्वे तद्वैपरीत्ये च । *] जिसके परिणाम स्वरूप तीन प्रकार के सम्भाषण सन्दर्भो में '(भावलक्षणा) सप्तमी' के प्रयोग प्राप्त होते हैं । यथा - (१) ऋद्धेषु भुञ्जानेषु दरिद्रा आसते । ब्राह्मणेषु तरत्सु वृषला आसते । यहाँ पर सम्मान्य व्यक्तिओं का जब कर्तृत्व/कारकत्व होता है; तब अनर्ह व्यक्तिओं का अक्रियाशीलत्व दिखाई पडता है । (२) दरिदेषु आसीनेषु ऋद्धा भुञ्जते । वृषलेषु आसीनेषु ब्राह्मणास्तरन्ति । यहाँ पर अयोग्य व्यक्तिओं के अकर्तृत्व की स्थिति में योग्य व्यक्तिओं की क्रियाशीलता दिखाई पड़ती है। (३) ऋद्धेषु आसीनेषु दरिद्रा भुञ्जते । ब्राह्मणेषु आसीनेषु वृषलाः तरन्ति । इन उदाहरणों में विपरीत-गति दिखाई दे रही है। अर्थात् सुयोग्य व्यक्तिओं के अक्रियाशीलत्व में, अयोग्य व्यक्तिओं की क्रियाशीलता कही गई है ॥ कात्यायन इन वार्तिकों से जो कहना चाहते है वह सूक्ष्मेक्षिका से आलोचनीय विषय है : एक तो, सप्तमी अधिकरणे च । २-३-३६ के भाष्य में रखे गयें ये वार्तिक वास्तव में तो यस्य च भावेन भावलक्षणम् । २-३-३७ पर होने चाहिए । (शायद इस लिए भट्टोजि दीक्षितने उसको स्थानान्तरित करके - भावलक्षणा सप्तमी के प्रसङ्ग में रख दिये है ।) क्योंकि भाष्यकारने जो उदाहरण दिये हैं वह भावलक्षणा सप्तमी के उदाहरण हैं | दूसरा, भावलक्षणा सप्तमी के जो अन्य उदाहरण साहित्य में प्रयुक्त हुए है, वह देखने से ऐसा मालुम पड़ता है कि कात्यायनने जो कहा है उसमें अभी और भी गहराई से सोचने की आवश्यकता है । यथा - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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