Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 92
________________ [83] मुखर रूप से यह बात शब्दबद्ध की गई है । जैसा कि – भट्टोजि दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी में "देवानां प्रिय इति च मूर्खे" इस तरह का वार्त्तिकवचन प्रस्तुत किया है ।18 (२) अल्पान्तरम् । २-२-३४ सूत्र से कहा जाता है कि द्वन्द्व समास में जो अल्प अच् (स्वर) वाला शब्द होगा उसका पूर्वनिपात होता है । यथा - शिवकेशवौ ॥ शंखदुन्दुभिवीणानाम् इत्यादि । परन्तु इस सूत्र पर कात्यायन कहते हैं कि - अभ्यर्हितम् । (वा० ४) अर्थात् द्वन्द्व समास में जुड़ने वाले शब्दों में से, पूजनीय या महत्त्वपूर्ण शब्द होगा, उस शब्द का पूर्वनिपात होता है । यथा – (१) माता च पिता च इति → मातापितरौ । (२) श्रद्धा च मेधा च → इति श्रद्धामेधे ॥ यहाँ पर वक्ता अपने लिए दोनों में से कौन अभ्यर्हितपूजनीय है यह व्यक्त करने के लिए जिस शब्द का पूर्वनिपात करता है, वह ध्यानास्पद बन जाता है । 2.3 विभक्ति प्रयोग में सम्भाषण-सन्दर्भ : पाणिनि ने दाणश्च सा चेच्चतुर्थ्यर्थे । १-३-५५ सूत्र से कहा है कि - तृतीया विभक्ति के साथ प्रयुक्त हुआ । दाण् दाने धातु से परमें आत्मनेपद होता है; यदि वह तृतीया चतुर्थीविभक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुई हो तो ॥ अब यहाँ प्रश्न होता है कि ऐसा कौन सा स्थान होगा जहाँ चतुर्थी के अर्थ में तृतीया प्रवृत्त हुई हो ? तो भाष्यकार कहते है कि - अशिष्टव्यवहारेऽनेन तृतीया च विधीयते आत्मनेपदं च ।9 अशिष्ट व्यवहार व्यक्त करने के लिए चतुर्थी के अर्थ में तृतीया होती है; और 'सम्' उपसर्ग पूर्वक / दाण् धातु को आत्मनेपद के प्रत्यय लगते है । यथा – दास्या संचच्छते कामुकः । यहाँ से सूचन ले कर काशिकाकारने वार्तिक बनाया है : अशिष्टव्यवहारे तृतीया चतुर्थ्यर्थे भवतीति वक्तव्यम् । वक्ता जब दासी और कामुक का व्यवहार धर्मशास्त्र को मान्य नहीं है, ऐसा व्यक्त करना चाहता है तो वह चतुर्थी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग करता है और क्रियापद में आत्मनेपद रखता है। परन्तु वह जब श्रोतां को कोई पति-पत्नी का धर्म्य व्यवहार बताना चाहता है, तब चतुर्थी के स्थान में चतुर्थी का ही, और क्रियापद में परस्मैपद संज्ञक प्रत्यय का प्रयोग करता है । यथा - दासः दास्यै धनं संयच्छति ॥ 18. ६-३-२१ इत्यत्र वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी । सं. वासुदेव पणशीकर, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, 1929, (p. 213).. 19. १-३-५५ इत्यत्र महाभाष्यम् (Vol. I), BORI, p. 284. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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