Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 94
________________ [85] (१) पश्यत्सु पाण्डुपुत्रेषु, द्रौपद्याः वस्त्राणि अपहृतानि । यहाँ पर, सुयोग्य पाण्डुपुत्रों की अकर्तृता में, एक अयोग्य दुःशासन की कर्तृता दर्शायी गई है । इस तरह से वार्तिककार का कथन सुसंगत तो हो जाता है। परन्तु सूक्ष्मेक्षिका से देखने से मालूम होता है कि यहाँ कार्यकारणभाव का सम्बन्ध तूटता है । अर्थात् सामान्य रूप से नीच अयोग्य दुःशासन की कर्तृता के समय में, सुयोग्य पाण्डुपुत्रों की निष्क्रियता अमान्य है। द्रौपदी के वस्त्राहरण रूप 'कारण' की उपस्थिति में, 'कार्य' का होना, अर्थात् योग्य व्यक्तिओं का क्रियाशील होना जरूरी था । परन्तु इस कार्यकारणभाव का सम्बन्ध तूटने की स्थिति को वाचा देने के लिए, भावलक्षणा सप्तमी का प्रयोग करना चाहिए - ऐसा वार्तिककार का मूलतः आशय होगा । इसी तरह से, कः पौरवे शासति वसुमती, शकुन्तलायाम् अविनयम् आचरति । (अभिज्ञानशाकुन्तलम् - अङ्क – १) उदाहरण में भी अर्हणीय व्यक्ति (राजा दुष्यन्त) के शासन काल में, भ्रमर रूप अयोग्य व्यक्ति की विनयाचरण रूप क्रिया में अकर्तृता है – ऐसा सोचकर, पूर्वोक्त वार्तिक की संगति बिठाई जाती है। परन्तु यदि हम ऐसा कहे कि दुष्यन्त के शासन रूप 'कारण' की उपस्थिति में, भ्रमर के विनीताचरण रूप 'कार्य' की अनिष्पति प्रदर्शित हो रही है । तो यह कहना वधु उचित दिखाई पड़ता है । भाषा में अन्य प्रचलित उदाहरण देखें तो (३) रामे वनं गते, दशरथः प्राणान् तत्याज । अथवा (४) भोजे दिवं गते, निरालम्बा सरस्वती । इन उदाहरणों में दोनों क्रियाओं के बीच कार्यकारणभाव का सम्बन्ध दिखाई पड़ेगा ॥ इन चारों उदाहरणों की चर्चा से निम्नोक्त निष्कर्ष निकाला जा सकता है :- भावलक्षणा सप्तमी का प्रयोग ऐसे सम्भाषण सन्दर्भो में भी किया जाता है कि - जहाँ (क) दो क्रियाओं के बीच में कार्य-कारणभाव व्यंजित करना हो, अथवा (ख) दो क्रियाओं के बीच में कार्यकारणभाव सम्बन्ध तूटता हो ! वार्तिककार इस परम सत्य तक तो नहीं पहुँच पाये है, परन्तु इस दिशा में सोचने का प्रारम्भ तो उन्होंने जरूर किया है ॥ 2.4 तद्धित प्रत्यय से सम्भाषण-सन्दर्भ : कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि चिः । ५-४-५० सूत्र से कृ, भू एवं अस् धातु के योग में, सम्पद्यमान कर्म के कर्ता को द्योतित करने के लिए 'स्वार्थ' में /-च्चि/ प्रत्यय होता है । अर्थात् विकारात्मता को प्राप्त करनेवाली प्रकृति के अर्थ में रहनेवाले विकारवाचक शब्द को 'स्वार्थ' में /-च्चि/ प्रत्यय लगता है । परन्तु यहाँ पर कात्यायन कहते है कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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