Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 40
________________ [31] 5. सोपान पर 'वाक्य' की निष्पत्ति भी/ही है। अतः इसी तन्त्र को 'वाक्यनिष्पादकतन्त्र' भी कहा जा सकता है । __ अब पाणिनीय व्याकरण तन्त्र के उत्तर गोलार्ध में जो विधियाँ वर्णित की गई हैं, वे पदोद्देश्यक-विधियाँ हैं; जिनको 'वृत्ति' कार्य भी कह सकते हैं । (इस स्वरूप को देखकर ही शायद, प्राचीन भारतवर्ष में इस व्याकरणशास्त्र को 'पदशास्त्र' कहा गया होगा ।) इस उत्तर गोलार्ध में गिनाई गई जो शास्त्रप्रक्रियाँए है, वे किसी न किसी विग्रह वाक्य को तोड़ कर, कृदन्त, तद्धितान्त या समासादि प्रकार के शब्दों का निर्माण किया जाता है । अतः उसी भाग को "रूपान्तरण का व्याकरण" नाम दे दें तो वह भी सही है । यहाँ पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निरीक्षणीय बिन्दु यह कि पदोद्देश्यक-विधियाँ जिन विग्रहवाक्य पर प्रवृत्त की जाती हैं, वे भी इसी तन्त्र के पूर्व गोलार्ध में वर्णित विधियों से निष्पन्न हुई होती है । अत: दोनों गोला? का पारस्परिक सन्धान करने वाले जो सूत्र हैं वे समर्थः पदविधिः । २-१-१ जैसा परिभाषासूत्र और कृतद्धितसमासाश्च । १-२-४६ जैसा प्रातिपदिकसंज्ञाविधायक सूत्र हैं । इस तरह से पाणिनीय व्याकरण चक्रवत् निरन्तर घूमता हुआ एक तन्त्र है; जो लोक में प्रयोगार्ह हो ऐसे अनेक असंख्य वाक्य सदैव निष्पन्न करता रहता है। ऐसे वाक्य की निष्पत्ति का आरम्भ विवक्षित अर्थ की पूर्व अवधारणा से शूरू होता है । ऐसे वाक्य या वाक्यांश को 'विग्रहवाक्य' के रूप में लेकर, हम चाहें तो कृत्तद्धितसमासादि पञ्चविध वृत्तियों का निर्माण करके, अपने अभीष्टार्थ को एक दृढ़बन्ध के रूप में भी प्रस्तुत कर सकते हैं । अथवा-ऐसे वृत्तिजन्य शब्दों का कारकों के (अभेदनिष्ठ) विशेषण के रूप में प्रयोग करके, अपनी अभिव्यक्ति को अधिक परिनिष्ठित भी कर सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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