Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 66
________________ [57] 2.3.3 विशिष्ट सम्भाषण सन्दर्भ के रूप में अर्थ का निर्देश : पाणिनि ने अपने 'वर्णनात्मक प्रकार' के व्याकरण में, पूरे सांस्कृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भो की, एक अर्थ के रूप में जो भाषाकीय स्तर पर अभिव्यक्ति मिलती है उसका बारिकी से वर्णन किया है । उसी तरह मनुष्य के दैनंदिन व्यवहार में जो बातचीत होती है और उसमें जो संभाषण सन्दर्भ' होते है उन को भी एक अर्थ के रूप में अभिव्यक्त होते हुए देखे है । अतः ऐसे अर्थों को भी सूत्रबद्ध करने की आवश्यकता थी । उदाहरण – (१) पाणिनि ने वाक्यसंघटना का निरूपण करते हुए लिखा है कि - "तद्', "एतद्', 'इदम्', 'यद्' इत्यादि सर्वनाम से वाच्य संसार की कोई भी जड़-चेतन व्यक्ति, 'युष्मद्' वाच्य श्रोता एवं 'अस्मद्' वाच्य वक्ता के लिए क्रमशः प्रथम-पुरुष, मध्यम-पुरुष एवं उत्तमपुरुष संज्ञक तिङ् प्रत्ययों से बने हुए क्रियापदों का प्रयोग होता है । किन्तु व्यवहार काल में संभाषण करते हुए जब हास-परिहास करने का प्रसङ्ग हो तब, पाणिनि 'प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच्च' । १-४-१०६ सूत्र से कहते है कि / मन् धातु है उपपद में जिसके, ऐसे अन्य क्रियावाचक धातु को मध्यम पुरुष संज्ञक प्रत्यय लगते है; और / मन् धातु को उत्तम पुरुष संज्ञक हो ऐसे "इङ्-वहि-महिङ्' तीन प्रत्ययों मे से जो एकवचन का प्रत्यय होता है, वह लगता है । यथा - त्वं (युवां अथवा यूयम्) मन्ये, अहं रथेन यास्यसि । "तूंने तो माना होगा कि मैं रथ में बैठकर प्रयाण करूँगा, (किन्तु वह रथ तो भग्न हो गया है !)" यहाँ पर उद्देश्य एवं क्रियापद की सङ्गति (Agreement) नहीं होती है। जैसे कि - 'अहम्' के साथ ‘यास्यसि' क्रियापद की और 'त्वं' के साथ 'मन्ये' की विसङ्गतिवाली वाक्यरचना होती है - ऐसा पाणिनि ने निर्देश किया है । सामान्य रूप से सभी वाक्यरचनाओं में उद्देश्य एवं तदनुरूप क्रियापद में 'पुरुष' की सङ्गति अर्थात् सामानाधिकरण्य (Agreement) होता है ऐसा पाणिनि ने युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः । १-४-१०३ इत्यादि सूत्रों से कहा है । लेकिन परिहास के सन्दर्भ में कौन सी विपरीत सङ्गति होती है उसका भी निरूपण किया है । अन्य शब्दों में कहे तो - 'परिहास' रूप संभाषण सन्दर्भ भी एक . वाक्यार्थ के रूप में उपर्युक्त विसङ्गति से ही प्रकट होता है - ऐसा पाणिनि ने उल्लिखित किया है। उदाहरण - (२) हेति क्षियायाम् । ८-१-६० सूत्र से पाणिनि ने कहा है कि 'ह' अव्यय के साथ प्रयुक्त जो भी पहली तिङ् विभक्ति (= पहला क्रियापद) होती है, उसको अनुदात्त स्वर नहीं होता है, यदि "क्षिया" अर्थात् "धर्माचार का भङ्ग" रूप अर्थ व्यक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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