Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 82
________________ [73] के नये या अप्रचलित अर्थ याद दिला के, वे कात्यायन के प्रस्ताव को ठुकराते है । यह एक दृष्टिभेद का प्रश्न है । अन्यथा कात्यायन ने जो 'अष्टाध्यायी' की सेवा की है, वह अत्यन्त महनीय है ॥ ___ पाणिनीय व्याकरण-परम्परा में पहले पाणिनि द्वारा 'अष्टाध्यायी' सूत्रपाठ लिखा गया । उस सूत्रपाठ के उपर कात्यायन ने वार्त्तिक लिखें । और पतञ्जलिने इन दोनों (सूत्र एवं वार्त्तिक) पर 'व्याकरण-महाभाष्य' की रचना की । इन तीनों के संयुक्त एवं संनिष्ठ आयास से ही पाणिनीय-व्याकरण का 'तन्त्र' खड़ा हुआ है । परन्तु आधुनिक अध्येताओंने इन तीनों आचार्यों के पारस्परिक सम्बन्ध को जिन दृष्टि से देखा है वह भी उल्लेखनीय है । पाणिनि के साथ कात्यायन का सम्बन्ध किस तरह का माना जाय ? और पतञ्जलि का पाणिनि एवं कात्यायन के साथ किस तरह का सम्बन्ध रहा होगा ? प्राथमिक दृष्टि से तो लगता है कि इन दोनों का सम्बन्ध; एक टीकाकार जैसे हि रहे होगें । परन्तु 'वार्तिक' का पूर्वोक्त लक्षण (जिस में कहा गया है कि पाणिनि के सूत्र पर जो अनुक्त एवं दुरुक्त चिन्तन प्रस्तुत करनेवाले वचन है - उसे 'वार्तिक' कहते है) देखकर कात्यायन का पाणिनि के साथ केवल एक टीकाकार का सम्बन्ध रहा होगा ऐसा नहीं लगता है । एवमेव भाष्यकारने भी अनेक वार्तिकों का खण्डन किया है । अत: पतञ्जलि भी कात्यायन के व्याख्याकार के रूप में उभर कर नहीं आते है ॥ गोडलस्टुकर नामक एवं जर्मन विद्वान् कहते है कि - कात्यायन पाणिनि के प्रशंसक अथवा मित्र रहे हो ऐसा नहीं लगता है । परन्तु कात्यायन पाणिनि के विरोधी के रूप में, बल्कि अनुचित विरोधी के रूप में हमारे सामने आते है ।11 दूसरी और पतञ्जलि पाणिनि का ही पक्ष लेते है; उसका ही समर्थन करते है। और कदाचित् कात्यायन को अन्याय भी कर देते है ।12 11. Kātyāyana, in short, does not leave the impression of an admirer or friend of Panini, but that of an antagonist; - often, too, of an unfair antagonist. - PANINI : His place in Sanskrit Literature, by Theodor Goldstucker, Pub. Chowkhamba Sanskrit Series Office, Varanasi, 1965, (p. 132). 12. Patañjali often refutes the stricutures of Kātyāyana and takes the part of Panini; .......he sometimes overdoes his defence of Panini, and becomes unjust to Kātyāyana. - Ibid, (p. 133). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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