Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 83
________________ [74] दूसरी और प्रोफे. एस. डी. जोशी (पूणें) जैसे विद्वान् कहते है कि कात्यायन शब्दों के अर्थ की मीमांसा ज्यादा करते है, और दार्शनिक चिन्तन की और अधिक झुकते है 13 इस तरह से कात्यायन के कार्य का मूल्यांकन अद्यावधि विवादास्पद रहा है । क्योंकि, गोल्डस्टुकर के शब्दों में कात्यायन भले ही पाणिनि के विरोधी लगते हो; 'अष्टाध्यायी' को अनवद्य एवं परिपूर्ण बनाने के लिए कात्यायन का अवदान अविस्मरणीय है । एवमेव, डॉ. जोशी (पूणें) ने जैसा कहा है, कात्यायन ने जो शब्दार्थ- विचारणा की ओ विशेष ध्यान आकर्षित किया है, वह भी समुचित है । प्रस्तुत व्याख्यान में, हम आगे चल कर कात्यायन का एक और विशिष्ट अवदान उजागर करना चाहते है । * * * कात्यायन ने शब्दार्थ की विचारणा करने के साथ साथ, वक्ता एवं श्रोता के बीच में जो सम्भाषण–सन्दर्भ होता है, (जिसको Pragmatics कहते है ) उसको भी मध्ये नजर रखते हुए कतिपय वार्त्तिक लिखे हैं । जिसके फल स्वरूप यह बात भी ध्यान में आती है कि व्याकरणतन्त्र के अन्तर्गत केवल 'पदत्वसंपादक - विधियाँ' और 'पदोद्देश्यकविधियाँ' ही बतानी पर्याप्त नहीं है; 'किस सम्भाषण सन्दर्भ में कौन सा विशिष्ट वाक्य ( या शब्द) प्रयोग होता है ?' यह भी उल्लेखनीय बनता है । कात्यायन का, इस दिशा जो एक विशिष्ट अवदान है; और जो अद्यावधि अनुल्लिखित भी रहा है वह प्रस्तुत व्याख्यान का प्रमुख्य वक्तव्य है ॥ 1.0 'सम्भाषण - सन्दर्भ' की व्याख्या : पाणिनि ने अपने व्याकरणतन्त्र में 'अर्थ' को आरम्भ-बिन्दु पर रख कर प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन की प्रक्रिया प्रदर्शित की है। उसमें जो द्रव्यादि पदार्थों के कोशगत अर्थ होते है, वह तो रूढि से प्रसिद्ध होते है । व्याकरण - प्रक्रिया (या रूपसाधनिका) के आरम्भ में ही ऐसे कोशगत अर्थ की वाचिका 'प्रकृति' का चयन किया जाता है। फिर, प्रकृति के जो लिङ्ग-वचनादि होते हैं; और उस प्रकृतिवाच्य व्यक्ति / पदार्थ का क्रिया में जो कारकत्व होता है उन (तीनों) को व्यक्त करनेवाला 'प्रत्यय' लिया जाता है। (यहाँ प्रत्यय से प्राप्त होने वाले लिङ्ग-वचन-कारकादि रूप अर्थ "व्याकरणिक अर्थ " कहे जायेंगे ।) तत्पश्चात् यह दोनों (प्रकृति + प्रत्यय) का संयोजन 13. Katyayan has a philosophical bend of mind.......It appears that he is more concerned with meaning and philosophization. - Samarthāhnika, by S. D. Joshi, University of Poona, 1968, p. xvi - xvii. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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