Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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[72] को 'सूत्र के व्याख्यानभूत-वचन' कह सकते है ।) परन्तु कात्यायन ने तो अन्य दो प्रकार के वार्तिक भी लिखे है । जैसा कि - नागेश भट्टने वृद्धिरादैच् । १-१-१ सूत्र के प्रथम वार्तिक (संज्ञाधिकार: संज्ञासंप्रत्ययार्थः) पर 'उद्द्योत' में लिखा है कि सूत्रेऽनुक्त-दुरुक्तचिन्ताकरत्वं वार्तिकत्वम् ।' पाणिनि के सूत्र में न्यूनता या अव्याप्त्यादि दोष देखकर सूत्र की पूर्ति करने के लिए या निर्दोष बनाने के लिए भी वार्तिक वचन लिखे गये है । अतः कोई भी अध्येता कात्यायन को पाणिनि के 'दोषज्ञ वैयाकरण' के रूप में समझें तो उसमें आश्चर्य की बात नहीं है । पाणिनि के कथन में सुधार करने वाले के रूप में कात्यायन को यदि देखा गया होता तो भी कदाचित् उसकी प्रशंसा हो सकती थी । परन्तु भाग्यवशात् परम्परा में, आगे चलकर जो भाष्यकार पतञ्जलि आये उन्होंने भी कात्यायन के अनेक वार्तिकों का अवतार करके और उसके गुणदोष की चर्चा करने के बाद, अन्त में प्रायः वार्त्तिककार के प्रस्ताव का अस्वीकार ही किया है । भाष्यकार का प्रयास ऐसा ही रहता है कि सूत्र के शब्दों का सूक्ष्मेक्षिका से पर्यालोचन करने से इसमें से व्यापक या एक विशिष्ट अर्थ भी मिल सकता है । जिसके कारण वार्त्तिकवचन की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती । उदाहरण के लिए - विप्रतिषेधे परं कार्यम् । १-४-२ सूत्र पर वार्तिककार ने एक वार्तिक लिख कर कतिपय स्थानों पर 'पूर्वविप्रतिषेध' की आवश्यकता प्रदर्शित की है । परन्तु भाष्यकार ने कहा है कि सूत्र में आये हुए "परं कार्यम्" शब्द का अर्थ केवल 'पश्चाद्वर्ती' ऐसा ही नहीं होता है; परन्तु 'पर' शब्द इष्ट वाचक भी है ।10 जहाँ पूर्वसूत्र की प्रवृत्ति इष्ट है/आवश्यक है तो उसको भी स्वीकारने से अब पूर्वोक्त वार्तिकवचन की आवश्यकता नहीं रहेगी ॥ ___ इस तरह से भाष्यकार ने बहुत स्थानों पर कात्यायन के वार्तिकों का खण्डन किया है ।
यद्यपि यहाँ पर, एक वास्तविकता यह भी रही है कि भाष्यकार के द्वारा तिरस्कृत वार्तिकों में से ऐसे अनेक वार्तिक हैं, जो ‘काशिका' जैसे वृत्तिग्रन्थों और 'सिद्धान्तकौमुदी' जैसे प्रक्रिया ग्रन्थो में सर्वथा स्वीकार्य ही रहे हैं। अतः प्रश्न होता है कि क्या भाष्यकार ने कहीं कात्यायन को अन्याय तो नहीं किया हैं ने ? इस प्रश्न का समाधान ऐसे सोचना चाहिए कि भाष्यकार के मनमें यह बात रही होगी कि स्थान स्थान पर यदि वार्तिककार के प्रस्ताव को हम स्वीकारते चलेंगे तो 'अष्टाध्यायी' का पूरा सूत्रपाठ बदल जायेगा । परन्तु 'अष्टाध्यायी' का ग्रन्थन किसी भी तरह से शिथिल तो नहीं हो जाना चाहिए । अतः सूत्र में ही तोड़-जोड़ करके या शब्दों 10. स तर्हि पूर्वविप्रतिषेधो वक्तव्यः । न वक्तव्यः । इष्टवाची परशब्दः । विप्रतिषेधे परं यदिष्टं
तद् भवतीति ॥ ७-१-९६ इत्यत्र व्याकरण महाभाष्यम् (Vol. III), BORI, p. 276.
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