Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ [61] 3.1 अर्थ के द्वारा संज्ञाविधान रूप कार्य : अष्टाध्यायी के कारकपाद (१-४-२३ से ५४) में विभिन्न कर्तृकर्मादि कारक संज्ञाओं का विधान किया गया है । इस प्रसङ्ग में,पाणिनि ने पहले निश्चित अर्थों को उद्दिष्ट करके, प्रत्येक को निश्चित कारक विशेष संज्ञा का विधान किया है । यथा - साधकतमं करणम् । १-४-४२, कर्तुरीप्सिततमं कर्म।१-४-४९ इत्यादि । यहाँ पर "क्रियासिद्धि में को साधकतम, अर्थात् प्रकृष्ट उपकारक कारक हो" उसे 'करण' कारक कहा जाता है । एवं "कर्ता को क्रिया के द्वारा प्राप्त करने को जो इष्टतम पदार्थ = कारक हो" उसे 'कर्म'कारक कहा जाता है । यहाँ पर 'साधकतमं' एवं “कर्तुरीप्सिततमं" यह अर्थ निरूपण है; उसी के आधार पर ही करण, कर्मादि कारकविशेष संज्ञा का विधान किया गया है । ___ तदनन्तरम्, पाणिनि ने विभक्तिपाद (२-३-१ से २-३-७३) के सूत्रों के द्वारा द्वितीयादि विभक्तियों का विधान किया है । इस प्रसङ्ग में, पाणिनिने कारकसंज्ञा को निमित्त (या माध्यम) बना के विभक्तिविधान किया है । यथा प्रथमाध्याय में कर्तुरीप्सिततमं कर्म । १-४-४९ सूत्र से कारकसंज्ञा का विधान करने के बाद, कर्मणि द्वितीया । २-३-२ सूत्र से द्वितीया विभक्ति का विधान किया है। 3.2 अर्थ के द्वारा विभक्तिविधान रूप कार्य : __ अष्टाध्यायी में कुत्रचित् ऐसा भी देखा जाता है कि पाणिनि ने बिना कोई कारकसंज्ञा को माध्यम बनाये, कुछ अर्थों में सीधा ही विभक्तिविधान कर दिया है । यथा - अपवर्गे तृतीया । २-३-६, तथा कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (द्वितीया)। २-३-५ इत्यादि सूत्र कहता है कि - अपवर्ग याने फलप्राप्ति हो गई है ऐसा अर्थ व्यक्त करना हो तो, काल वाचक एवं मार्गवाचक शब्द को तृतीया विभक्ति में रखा जाता है । यथा - द्वादशवर्षेः व्याकरणम् अधीतम् । (द्वादश वर्षों से व्याकरण पढ़ा है, और ज्ञान हो गया है) परन्तु जब “(केवल) क्रिया का अत्यन्तसंयोग (ही) रहा है" (परन्तु फलप्राप्ति नहीं हुई है !) ऐसा अभिव्यक्त करना हो तो कालवाचक एवं मार्गवाचक शब्द को द्वितीया विभक्ति होती है । यथा - द्वादशवर्षाणि व्याकरणम् अधीतम् । (द्वादश वर्ष पर्यन्त सातत्यपूर्वक व्याकरण पढ़ा है) इसी तरह से - 'देवदत्तः वेदं मासम् अधीते ।' में क्रिया का अत्यन्तसंयोग होने पर कालवाचक शब्द को द्वितीया लगी है । परन्तु यहाँ पर पाणिनि ने कालवाचक या मार्गवाचक शब्द की पहले कर्मकारक संज्ञा उद्घोषित नहीं की है । जिसके परिणाम स्वरूप जब पूर्वोक्त वाक्य का कर्मणिवाच्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98