Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ [69] पूर्वपक्ष के इस आशय को, अर्थात् 'आख्या' पद का प्रयोग क्यों किया गया है ? इस जिज्ञासा के उपलक्ष्य में वार्तिककार ने कहा है कि - __ "नदीसंज्ञायाम् 'आख्या' ग्रहणं स्त्रीविषयार्थम्" (वा:-१) अर्थात् नदीसंज्ञा के विषय में 'आख्या' शब्द का प्रयोग इस लिए किया जाता है कि - जो दीर्घ ई-कारान्त एवं दीर्घ ऊ कारान्त नित्य स्त्रीलिङ्ग शब्द होंगे, उसी की ही 'नदी' संज्ञा हो सके; (अन्य की नहीं) - यह स्पष्ट करने के लिए सूत्र में "आख्या" शब्द का ग्रहण किया गया है । यथा - ग्रामणी । सेनानी । जैसे दीर्घ ई कारान्त पुंलिङ्ग शब्दों की 'नदी' संज्ञा नहीं होगी । इस तरह के वार्तिक को 'उक्तचिन्ताप्रवर्तक' कहते हैं । (ख) अनुक्त-चिन्ता प्रवर्तक वार्तिक : पाणिनि के सूत्र में जो नहीं कहा गया है, या जो कहा गया है वह अपर्याप्त है तो ऐसे स्थानों पर परिपूर्ति करने के लिए जो वार्तिक प्रस्तुत किया जाता है उसे अनुक्त चिन्ता प्रवर्तक वार्तिक कहते है । उदाहरण के लिए - पाणिनि ने कृत्याः । ३-१-९५ सूत्र के अधिकार में, तव्यत्तव्य-अनीयरः । ३-१-९६ सूत्र रखा है। इस सूत्र से धातुमात्र से (कृत्यसंज्ञक) तीन प्रत्ययों का विधान किया गया है। जिससे 'पक्तव्य', 'पचनीय' जैसे शब्द सिद्ध होते हैं। सूत्रकार के इस विधान में पूर्वपक्ष को न्यूनता दिखाई देती है। इस न्यूनता की परिपूर्ति करने के लिए यहाँ पर वार्त्तिककार कहते है कि - केलिमर उपसंख्यानम् । (वार्तिक-१) अर्थात् धातु से परे |-केलिमर/ प्रत्यय भी होता है - ऐसा एक अधिक प्रत्यय भी कहना चाहिए । जिसके फल स्वरूप - "पचेलिमाः माषाः ।" या "भिदेलिमाः" सरलाः । इत्यादि शब्द भी सिद्ध हो सकते है। ‘पक्तव्याः' या 'भेत्तव्याः' के अर्थ में ही यह दोनों (पचेलिमाः) (भिदेलिमाः) शब्दों का प्रयोग हो सकता है। यहाँ हम देख सकते है कि - 'तव्यत्', 'तव्य' और 'अनीयर' प्रत्यय के साथ साथ एक नया, अथवा (सूत्रकार द्वारा) अनुक्त हो ऐसा एक /-केलिम/ प्रत्यय वार्तिककारने प्रदर्शित किया है । तो ऐसे वार्तिकों को 'अनुक्तचिन्ताप्रवर्तक' वार्तिक कहते हैं ॥ (ग) दुरुक्त चिन्ता प्रवर्तक वार्त्तिक : पाणिनि ने अपने सूत्रों के द्वारा जो व्यवस्था निर्धारित की है, उसमें कुत्रचित् अतिव्याप्ति या अव्याप्ति रूप दोष भी दिखाई पड़ते हैं । उसको हटाने के लिए भी कात्यायनने कुछ 7. १-४-३ इत्यत्र 'व्याकरण-महाभाष्यम्' (Vol. I), BORI, p. 313. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98