Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 65
________________ [56] 2.3.2 (2) सामाजिक जीवन में तो व्यापार, शिक्षण, क्रीड़ा, विशिष्ट संज्ञा इत्यादि का भी समावेश होता है । भाषा में ऐसे अनेक शब्द होते है, जिसमें ऐसा सामाजिक जीवन प्रतिबिम्बित होता है और किसी भी वैयाकरण के लिए यह आवश्यक है कि शब्द की वर्णानुपूर्वी से हि ध्वनित होनेवाले ऐसे समाजजीवन को वह उद्घाटित करे । उदाहरण रूप से (१) क्रय्यस्तदर्थे । ६-१-८२ सूत्र के 'क्रय्यम्' शब्द बनता है, जिसका अर्थ "क्रेतारः क्रीणीयुरिति बुद्धया आपणे प्रसारितं क्रय्यम् ।" होता है । जो चीज वस्तुएँ बेचने के लिए तैयार रखी है उसीको 'क्रय्य' कहते है । परन्तु भविष्य में बेचने योग्य (गोदाम में रखी हुई जो) होती है उसीको 'केयम्' कहते है । (२) संज्ञायाम् । ३-३-१०९ सूत्र के द्वारा किसी भी धातु से ण्वुल् प्रत्यय होता है, यदि किसी की 'संज्ञा' बतानी हो तो । यथा - उद्दालकपुष्पभञ्जिका । इसी के साथ सम्बद्ध दूसरा सूत्र 'नित्यं क्रीडाजीविकयोः । २-२ - १७ है । क्रीडा एवं आजीविका रूप अर्थ व्यक्त करने के लिए नित्य षष्ठी तत्पुरुष समास होता है: उद्दालकस्य पुष्पाणि, भज्यन्ते यस्यां क्रीडायां, (सा क्रीडा) "उद्दालकपुष्पभञ्जिका" यह एक क्रीड़ा की संज्ञा है । यहाँ पर ण्वुल् प्रत्यय एवं नित्य समास से यह " क्रीडा की संज्ञा " रूप अर्थ प्रकट होता है । संज्ञा से भिन्न अर्थ में केवल विगृहीत वाक्य ही बनता है । " उद्दालकस्य पुष्पाणां भञ्जिका" (कापि कन्या) । 4 - (३) शैक्षणिक सन्दर्भों के लिए भी पाणिनिने अनेक सूत्रों का प्रणयन किया है । यथा वर्णाद् ब्रह्मचारिणि ५-२- १३४ सूत्र कहता है कि 'ब्रह्मचारी' (विद्यार्थी) अर्थ में 'वर्ण' शब्द को इनि प्रत्यय लगता है । यथा वर्ण + इनि वर्णी । जो विद्याग्रहण के लिए नियमाचरण रूप ब्रह्म का सेवन नहीं करता है, केवल जन्म से उच्च वर्ण में उत्पन्न हुआ हैं (यथा - ब्राह्मणादि तीन वर्णवाला व्यक्ति) वह 'वर्णवान्' कहा जाता है । यहाँ पर / - मतुप् प्रत्यय ही होता है । = Jain Education International इसी तरह से चरणे ब्रह्मचारिणि ६-३-८६ सूत्र कहता है कि वेद की एक ही शाखा या चरण का अध्ययन करनेवाले छात्र, परस्पर में 'सब्रह्मचारी' कहलाते है । यहाँ पर 'ब्रह्मचारिन्' शब्द उत्तरपद में रहते हुए 'समान' शब्द को 'स' आदेश होता है, यदि 'चरण' रूप अर्थ गम्यमान रहे तो 123 आख्यातोपयोगे । १-४-२९ सूत्र भी इसी प्रकार का है । 23. चरणे गम्यमाने ब्रह्मचारिण्युत्तरपदे समानस्य स इत्ययमादेशो भवति । समानो ब्रह्मचारी सब्रह्मचारी | ब्रह्म वेदः, तदध्ययनार्थं यद् व्रतं तदपि ब्रह्म, तच्चरति इति ब्रह्मचारी, समानस्तस्यैव ब्रह्मणः समानत्वादित्ययमर्थो भवति समाने ब्रह्मणि व्रतचारी सब्रह्मचारीति । ६–३–८६ इत्यत्र काशिकावृत्तिः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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