Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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प्रागुदञ्चौ विभजते हंसः क्षीरोदके यथा ।
विदुषां शब्दसिद्ध्यर्थं सा नः पातु शरावती ॥ ( १ - १ - ७५ इत्यत्र काशिकावृत्तिः ) अर्थात् “विद्वानों के लिए शब्दसिद्धि करने का जब प्रसङ्ग उठता है तब जिस तरह से हंस नीर-क्षीर का विवेक कर दिखाता है, वैसे ही शरावती नदी भी पूर्व के देशों का और उत्तरी देशों के भाषाभेद को अलग करने दिखाती है । ऐसी शरावती नदी हमारा ( वैयाकरणों का) रक्षण करे ।" इसको स्पष्ट करते हुए हरदत्तने लिखा है कि शरावती नामक नदी उत्तरपूर्वाभिमुख बहती है । उसके दक्षिण-पूर्व का जो प्रदेश है, उसे 'प्राग्देश' कहते हैं और उत्तरपश्चिम के प्रदेश को 'उदग्देश' कहते हैं । 21 इस तरह शब्दसिद्ध के प्रसङ्ग में, पाणिनिने जो जो भौगोलिक मर्यादायें अर्थ के रूप में प्रकट होती हैं उनका भी सही सही वर्णन किया है ।
इसी तरह का एक दूसरा उदाहरण देखिए पाणिनि ने तद्धित प्रत्ययों का विधान करते समय कहा है उदक् च विपाशः । ४ - २ - ७४. " विपाश् नदी के उत्तरी तट पर जो कूप हैं उन्हीं का यदि तद्धित प्रत्यय से नामाभिधान करना हो तो अञ् (ञित् ) प्रत्यय लगाया जाता है ।" दत्तेन निर्वृतः कूप: (दत्तने बनाया हुआ कूप) सः दात्तं (कूपः) । कहा जाता है । यहाँ पर अञ् (ञित्) प्रत्यय लगने से, नित्यादिर्नित्यम् । ६-१-१९७ सूत्र से जिदन्त एवं निदन्त शब्दों को आद्युदात्त स्वर से बोला जाता है । किन्तु इसका फलितार्थ यह होता है कि सूत्रकार की दृष्टि से विपाश् नदी के दक्षिणी तट पर स्थित कूपों के लिए जब तद्धितान्त शब्द बनाया जाता है, तब कूप को ( अञ् प्रत्यय लगता नहीं है;) अण् प्रत्यय ही लगता है । जिससे 'दत्तेन निर्वृतः इति दात्तः (कूपः ) ऐसा आद्युदात्त ( ३-१-३) शब्द बनता है / बोला जाता है । इसी तरह से, एक नदी के उत्तरी तट पर अमुक शब्द किस स्वर के साथ बोला जाता है, और वही शब्द उसी नदी के दक्षिणी तट पर विभिन्न स्वर से बोला जाता है । पाणिनि ने बड़ी सूक्ष्मेक्षिका से भाषा का जो सर्वेक्षण किया है; उसमें शब्दोच्चारण के स्वरभेद में जो भौगोलिक स्थिति भी एक अर्थ के रूप में ही प्रतिबिम्बित होती है वह हमारे लिए ध्यानास्पद है ।
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21. शरावती नाम नदी उत्तरपूर्वाभिमुखी, तस्या दक्षिणपूर्वस्यां दिशि व्यवस्थितो देशः प्राग्देशः, उत्तरपरस्याम् उदग्देशः । तौ शरावती विभजते । तथा मर्यादया तयोर्विभागो ज्ञायते ॥ (काशिका - पदमञ्जरी, पृ. २५९-६० प्रथमो भागः )
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