Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 55
________________ [46] ध्यान में रखकर ही प्रस्तुत किया गया है । जब कि पाणिनि ने वक्तृपक्ष को पुरस्कृत करके 'अर्थतत्त्व' के विभिन्न स्वरूपों (= अर्थविधाओं) को प्रस्तुत किया है । अब आनेवाले पृष्ठों में उसीकी चर्चा की जायेगी ।। 2.1.2 द्विविध दृष्टि से अर्थ स्वरूप की विचारणा : इस व्याख्यान के आरम्भ में, (1.1 में,) कहा गया है कि पाणिनि ने अपना जो 'अष्टाध्यायी' व्याकरण लिखा है, वह वर्णनात्मक (Descriptive) प्रकार का भी है और शब्दनिष्पादकतन्त्र स्वरूप का (Generative grammar) भी है । अतः इन दोनों दृष्टिओं से पाणिनि के मत में विविध सन्दर्भो में 'अर्थ' का स्वरूप कैसा है ? यह विवेचनीय होगा । 2.2 'शब्दनिष्पादक-तन्त्र' में अर्थ का स्वरूप : __ • जैसा कि पहले कहा गया है पाणिनि ने अपने शब्दनिष्पादक-तन्त्र (Generative grammar अर्थात् Word-producing machine) में 'अर्थ' को आरम्भबिन्दु में ही in put के रूप में रखा है । यद्यपि यह बात बहुत अच्छी तरह से डॉ. जोहानीस ब्रोन्खोर्ट ने कही है । 4 परन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि पाणिनि का तन्त्र संयोजनात्मक पद्धति से शब्दनिष्पादक तन्त्र के रूप में लिखा गया है, इसी लिए 'अर्थ' को आरम्भ में रखना आवश्यक बन गया है । एवमेव उन्होंने यह भी नहीं कहा है कि पाणिनीय व्याकरण में विभिन्न प्रकार के अर्थों को ध्यान में लिया गया है; और उन सभी प्रकार के अर्थप्रदर्शन के द्वारा पाणिनि ने किस प्रकार के विविध कार्य सम्पन्न किये हैं । तन्त्र के आरम्भबिन्दु पर ही रखे गये ये 'अर्थ' प्रायः 'व्याकरणिक अर्थ' हैं और कुछ 'विशिष्टयर्थ' भी हैं । इन दोनों में से 'व्याकरणिक अर्थ' के दो प्रमुख भेद दिखाई पड़ते हैं:- (१) वाक्यगत अर्थ एवं (२) पदगत अर्थ । 2.2.1 व्याकरणिक-अर्थ : 2.2.1 (1) वाक्यगत अर्थ : आधुनिक काल में डॉ. शिवराम दत्तात्रेय जोशी (पूणे) इत्यादि मूर्धन्य वैयाकरणों ने यह साधार सिद्ध किया है कि पाणिनि ने पदसंस्कार पक्ष का नहीं; परन्तु वाक्यसंस्कार-पक्ष का 14. Johannes Bronkhorst : The role of meaning in Panini's grammar, Published in Indian Linguistics; (Vol. 40), 1979, pp.146-157. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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