Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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[48] (२) दूसरा उदाहरण - वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद् वा । पा. सू. ३-३-१३१. "वर्तमानकाल जिसके समीप में है ऐसे भूत एवं भविष्यत् काल में प्रवर्तमान धातु में वर्तमान काल जैसे ही प्रत्यय विकल्प से होते हैं ।" यथा-कदा देवदत्त आगतोऽसि । “देवदत्त ! तू कब आया ?" इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि - अयम् आगच्छामि । आगच्छन्तमेव मां विद्धि । "बस, मैं आ ही रहा हुँ ।" अथवा - कदा देवदत्त गमिष्यसि ? देवदत्त, तू कब जायेगा ? इसके उत्तर में कहा जाता है - एष गच्छामि । "मैं जा ही रहा हूँ।" इस सूत्र की 'काशिकावृत्ति' में लिखा है कि – यो मन्यते - "गच्छामीति पदं वर्तमाने काल एव वर्तते, कालान्तरगतिस्तु वाक्याद् भवति । न च वाक्यगम्यः कालः पदसंस्कारवेलायाम् उपयुज्यते" इति । तादृशं वाक्यार्थप्रतिपत्तारं प्रति प्रकरणमिदं नारभ्यते ॥17
इसका विवरण इस प्रकार है :- 'आगच्छामि' ऐसा पद (केवल) 'वर्तमानकाल' अर्थ में ही प्रवृत्त होता है । लेकिन यदि सन्दर्भवशात् जो (भूत-भविष्यद् आदि रूप) कालान्तर की अवगति होती है, वह तो वाक्य का ही अर्थ होता है । [अतः, ऐसे भूत-भविष्यदादि रूप विशेषार्थ यदि वाक्य में से निकलता है तो प्रस्तुत सूत्र की कोई जरूरत नहीं है ।] अर्थात् वाक्य से प्राप्त होनेवाला (भूत-भविष्यदादि) 'काल' रूप अर्थ पदसंस्कारपक्ष में कभी भी उपयुक्त नहीं होता है (जुड़ता नहीं है ।) - इस तरह की जिनकी विचारधारा है (अर्थात् यह भूत-भविष्यदादि रूप विशेष काल की प्रतीति को जो 'वाक्य' का अर्थ समझते है), उन लोगों के लिए इस प्रकरण (३-३-१३१ से १३८ सूत्रों) की प्रस्तुति नहीं
काशिकाकार की उपर्युक्त चर्चा का विशद अर्थ इस प्रकार है :- जो लोग ऐसा मानते है कि पाणिनीय व्याकरण पदसंस्कार-पक्ष को ही प्रस्तुत करता है (और भूत-भविष्यद् रूप विशेषार्थ तो 'वाक्य' का अर्थ बनता है) इन के लिए ३-३-१३१ इत्यादि आठ सूत्रों की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि पाणिनि ने यदि पदसंस्कारपक्ष ही प्रस्तुत किया हो तो वर्तमाने लट् । ३-२-१२३ सूत्र से पहले ही, वर्तमानकाल का रूप बन जायेगा, और बाद में, उसी वर्तमानकालिक 'आगच्छामि' पद का वाक्य में प्रवेश होने के बाद "समीप का भूत" या "समीप का भविष्य" रूप अर्थ तो सन्दर्भवशात् (वाक्यार्थ के रूप में) प्राप्त 17. काशिकावृत्तिः (तृतीयो भागः), सं. द्वारिकादासः शास्त्री, कालिकाप्रसादः शुक्लश्च । तारा
पब्लिकेशन्स, वाराणसी, १९६६, (पृ. ९९-१००)
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