Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ [30] 3.1 पाणिनीय-व्याकरण : चक्रवत् घूमता हुआ एक तन्त्र : परन्तु, प्रोफे. ज्योर्ज कार्दोना के उपर्युक्त अभिप्राय के अनुसन्धान में यह कहना भी आवश्यक है कि - आधुनिक विद्वानों द्वारा पाणिनीय-व्याकरण का जो अद्यावधि आंशिक दर्शन प्राप्त किया गया है; वह यदि पूर्णतया स्वीकार्य नहीं है, तो पूर्णतया तिरस्कार्य भी नहीं है ! प्रस्तुत द्वितीय व्याख्यान में, हमने जो पाणिनीय व्याकरण को 'चक्रवत् घूमता हुआ एक तन्त्र' कहा है, उसी मत में पूर्वाचार्यों के सभी मतों का समावेश किया जा सकता है । और भूतकाल में जो जो आंशिक दर्शन प्राप्त हुए है उन्हीं को योग्य तार्किक क्रम में सुसंगत करके बिठाया जाय तो सम्भव है कि पूर्ण हस्ती का दर्शन दृष्टिगोचर बन जाय ! जैसा कि - 5. विशेषण रूप 1 अर्थअर्थ बन कर नये | वाक्य में प्रवेश 2 कारकसंज्ञा 4. वृत्तिजन्य शब्द की सिद्धि 시 3. विभक्तिविधान (पाणिनीय) 3. रूपान्तरण के नियम 4 4. सुबन्त-तिङन्त 'पद' की सिद्धि व्याकरण तन्त्र , 5. सिद्ध पदों के 2 प्रातिपदिकसंज्ञा बीच सन्धि कार्य 61 पदोद्देश्यक M (1-2-46) 6-A लोक में प्रयोगार्ह 'वाक्य' की विधियाँ का निष्पत्ति सम्पन्न । प्रारम्भ अथवा (= 'वृत्ति' कार्य के 6–B विग्रह वाक्य की निष्पत्ति रूप में कृत्-तद्धितादि का विधान) ___ यहाँ पर, तन्त्र के पूर्व गोलार्ध में जो पदत्वसाधक विधियाँ है, उनमें Morphological grammar का स्वरूप देखा जा सकता है; परन्तु पदत्व की सिद्धि होने के बाद आगे चलने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98