Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 46
________________ [37] - उपर्युक्त दृष्टिकोण से लिखे गये पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' व्याकरण को हम 'वर्णनात्मक' प्रकार का (Descriptive grammar) व्याकरण तो कहेंगे ही; परन्तु जैसा कि आरम्भ में (0.1) कहा गया है, यही व्याकरण पृथक्-करणात्मक पद्धति से नहीं, वरन् संयोजनात्मक पद्धति से लिखा गया है । अर्थात् पाणिनीय व्याकरण तो एक 'शब्दनिष्पादक तन्त्र' भी है । जिस में प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करके, बीच में आवश्यक ध्वनिपरिवर्तन करते हुए, अन्ततोगत्वा लोक में प्रचलित एक प्रयोगार्ह वाक्य किस तरह से निष्पन्न होता है इसकी प्रक्रिया बताई गई है । अतः पाणिनीय व्याकरण के एक साथ दो स्वरूप हमारे सामने उपस्थित होते हैं और इस प्रकार यह व्याकरण "वर्णनात्मक प्रकार का शब्दनिष्पादक व्याकरणतन्त्र" (Descriptive Generative Grammar) प्रतीत होता है । 1.2 तन्त्र में अर्थ-निर्देश की आवश्यकता एवं प्रयुक्तियाँ : यदि पाणिनि के व्याकरण का प्रकार वर्णनात्मक है, तो यह नितान्त आवश्यक होगा कि पाणिनि जब भी किसी पद की साधनिका बतायें तो वे यह भी कहें कि वहाँ किस अर्थ में अमुक प्रत्यय आ रहा है ? जैसे - किस लिङ्ग या वचन (सङ्ख्या ) रूपी अर्थ को व्यक्त (या द्योतित) करने के लिए यह प्रत्यय प्रयुक्त किया जाता है ? यह तो किसी भी वैयाकरण को बताना ही होगा । अथवा स्तुति, निन्दा, आक्रोश, या त्वरा, आक्षेपादि रूप विशिष्ट मन:स्थितियाँ/मानसिक भावों का प्रकटीकरण करने के लिए प्रसिद्ध प्रकृति-प्रत्यय में कहाँ पर विशिष्ट ध्वनि परिवर्तन हुआ करता है ? यह भी बताना अनिवार्य है । अत एव यह सब विशद करने के लिए, पाणिनि को अपने वर्णनात्मक प्रकार के व्याकरण में, अर्थ-निर्देश करना जरूरी, बल्कि अनिवार्य बन गया है । कहने का तात्पर्य यह है कि लोक में प्रचलित नामपद एवं क्रियापदों की, किस प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन से रूपरचना सम्पन्न होती है ? - इतना ही बताने से "वर्णनात्मक प्रकार" का व्याकरण नहीं कहलाता है। उसके लिए तो यह भी बताना परम आवश्यक होता है कि किस अर्थ में कौन सा प्रत्यय प्रयुक्त होता है । इस सन्दर्भ में अब यह देखना होगा कि - महर्षि पाणिनि ने अपने व्याकरणतन्त्र में (पदगत एवं वाक्यगत) अर्थों का निर्देश करने के लिए किन किन प्रयुक्तियों का प्रयोग किया है : पाणिनि ने अपने सूत्रों में प्रायः पञ्चमी या सप्तमी, षष्ठी एवं प्रथमा - इन तीन (सुप्) विभक्त्यन्त पदों का प्रयोग किया है। इन में से सप्तम्यन्त पदों का अर्थघटन करने के लिए सबसे पहले, अधिकरण कारक के तीन प्रभेद जानने पड़ेंगे । अधिकरण तीन प्रकार के होते हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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