Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 28
________________ [19] प्रविष्ट हो सकता है; और फिर से तन्त्र के पूर्व गोलार्ध में निर्दिष्ट सूत्रावली क्रियाशील हो कर विभिन्न कारकसंज्ञा → विभक्तिविधानादि रूप कार्य शुरू कर देती है ! यथा : 'अहं कुम्भकाराय देवदत्ताय धनं ददामि ।' इत्यादि ॥ 2.1.2 तद्धित रूपा वृत्ति : किसी नाम के अर्थ में हित करनेवाला (अर्थात् कुछ नया अर्थ जोड़नेवाला) जो प्रत्यय होता है उसको 'तद्धित' (तस्मै = प्रकृत्यर्थाय हितम् = तद्धितम्) प्रत्यय कहते हैं । यथा - उपगोः अपत्यं (गच्छति) । → औपगवः (गच्छति) ।। अब 'औपगवः' जैसे तद्धितान्त शब्द की प्रक्रिया देखते हैं :उपगोः अपत्यम् (गच्छति) । एक लौकिक विग्रह वाक्य उपगु + ङस् + अपत्य + अम् , | (अलौकिक विग्रह वाक्य) (१) समर्थानां प्रथमाद् वा ।४-१-८२ सूत्र के अधिकार में आये हुए - | (२) तस्यापत्यम् । ४-१-९२ से षष्ठ्यन्त उपगु + ङस् + अण्, समर्थ प्रातिपदिक से 'अपत्य' अर्थ में तद्धितान्त शब्द 'अण्' प्रत्यय होता है । । उपगु + ङस् + अण्, (३) कृत्तद्धितसमासाश्च । १-२-४६ से तद्धितान्त शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा प्रातिपदिक-संज्ञा होती है। इसके फल स्वरूप - सुपो धातुप्रातिउपगु + ० + अण् पदिकयोः । २-४-७१ से प्रातिपदिक के अवयवभूत 'सुप्' का लुक् होता है । उपगु + अ(०) हलन्त्यम् । १-३-३ से 'ण' की इत्संज्ञा, लोप । णित् प्रत्यय पर में रहते । औपगु + अ तद्धितेष्वचामादेः । ७-२-११७ से आदि अच् की वृद्धि । औपगो + अ ओर्गुणः । ६-४-१४६ से 'गु' के 'उ' औपग् अव् + अ का गुण । = औपगव ॥ एचोऽयवायावः । ६-१-७८ से अव् आदेश । 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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