Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 35
________________ गमि + लट कर्तरि कर्मणि वाच्य वाच्य गमि + तिप् [26] (१) वर्तमाने लट् । ३-१-१२३ । . लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः । ३-४-६९ से विवक्षा पूछे जाने पर मान लीजिये कि हमने कहा है कि हमारा यह 'ल' कर्ता को वाच्य बनायेगा । (३) लस्य । ३-४-७७ के अधिकार में तिप्तस् झि.......महिक। ३-४-७८ से ल के स्थान में 'तिप्' आदेश की प्रवृत्ति । (४) कर्तरि शप् । ३-१-६८ से शप् विकरण प्रत्यय का विधान । | (५) सार्वधातुकार्धधातुमयोः । ७-३-८४ से इगन्त अङ्ग को गुण होगा । (६) एचोऽयवायावः । ६-१-७८ से ए → अय् आदेश । | (७) णिजन्त क्रियापद की सिद्धि सम्पन्न होती + शप् + तिप् गमि इगन्त अङ्ग को गुण + . गमे + अ + ति गम् अय् + अ + ति गमयति । ___ अब 'गमयति' क्रियापद के /-तिप्/ प्रत्यय से कर्तृकारक वाच्य है ऐसी विवक्षा हमने उपर्युक्त प्रक्रिया के आरम्भ में व्यक्त की थी । अतः कर्ता 'तिप्' से अभिहित होने के कारण 'दशरथ' रूप नये प्रेरक कर्तृकारक शब्द को कर्तृकरणयोस्तृतीया । २-३-१८ से तृतीया नहीं लगती है। परन्तु प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा । २-३-४६ सूत्र से प्रथमा विभक्ति (एकवचन) /-सु/ प्रत्यय लगता है, और 'दशरथः' ऐसा सम्पन्न होता है । 'दशरथः रामं वनं गमयति' ॥ यहाँ पर तीन सूत्र -- (१. हेतुमति च । ३-१-२६, २. गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणाम् अणि कर्ता स णौ । १-४-५२ एवं ३. सनाद्यन्ता धातवः । ३-१-३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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