Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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[27] ऐसे है जो स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि पाणिनि ने एक (शुद्धि) कर्तरि वाक्य का णिजन्त (= प्रेरक) वाक्य में रूपान्तरण कैसे कैसे होता है यह प्रदर्शित किया है ।
2.2 पूर्वोक्त चर्चा का निष्कर्ष :
पाणिनीय व्याकरण तन्त्र के पूर्वोक्त उत्तर गोलार्ध में, विग्रह वाक्य में से एक वृत्तिजन्य शब्द का निर्माण करने के लिए रूपान्तरण के नियम (Transformational rules) प्रस्तुत किये गये हैं ऐसा कहना सर्वथा उचित है ।
यह स्मर्तव्य है कि तन्त्र के पूर्व गोलार्ध में प्रदर्शित वाक्यनिष्पत्ति की प्रक्रिया में कर्तरिवाच्य, कर्मणिवाच्य या भाववाच्य वाक्यरचनाओं को पूर्ण स्वतन्त्र रूप से निष्पन्न होती हुई बताई गई है । अर्थात् कर्तरिवाच्य को मूल रचना लेकर उसका कर्मणिवाच्य या भाववाच्य में रूपान्तरण होता है ऐसा नहीं बताया गया है ।
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केवल तन्त्र के उत्तर गोलार्ध में, जहाँ पर 'पदोद्देश्यक - विधियाँ' प्रस्तुत की गई है, वहाँ पर ही (शुद्ध) कर्तरि रचना से णिजन्त (प्रेरक) वाक्यरचना का रूपान्तरण दिखाया गया है । और कृत्तद्धितादि (प्रथम चार) वृत्तियों में कोई न कोई विग्रहवाक्य अन्तःस्तरीय रचना के रूप में गृहीत होकर ही, उसका वृत्तिजन्य पद में परिवर्तन होता हुआ प्रदर्शित किया गया है । और ऐसे अन्तःस्तरीय रचना के रूप में रहे विग्रहवाक्य भी बनते तो हैं तन्त्र के पूर्वगोलार्ध में निर्दिष्ट पदत्वसंपादक विधिसूत्रों से ही ! यह भी भूलना नहीं चाहिए ||
एवमेव विग्रहवाक्य में से साधित वृत्तिजन्य कृदन्त, तद्धितान्त या समासादि रूप शब्द एक नये वाक्य के कारकों का विशेषण रूप 'अर्थ' बनकर तन्त्र के पूर्वगोलार्ध में निर्दिष्ट पदत्वसंपादक विधियों की शरण में फिर से पहुँचते ही हैं। जिसके फल स्वरूप हमें " ( दाशरथिः) रामः (जनकनन्दिनीं) (प्रियंवदां) सीतां (स्थण्डिलशायिनः) वाल्मीकेराश्रमं गमयति ।" जैसा वाक्य मिलता है । इस प्रलम्ब वाक्य की पूर्वावस्था में मूल (शुद्ध) कर्तरिवाक्य तो “सीता वाल्मीकेराश्रमं गच्छति" इतना ही है । परन्तु उसीका (१) प्रेरक वाक्यरचना में जब रूपान्तरण होता है तो "रामः सीतां वाल्मीकेराश्रमं गमयति" जैसा वाक्य बनता है । और ( २ ) इस नये वाक्य के कारकों का विशेषण बनकर जो जो तद्धितान्त कृदन्त या समासादि वृत्तिजन्य शब्द आये हैं, वे भी मूल में तो कोई स्वतन्त्र विग्रह वाक्य में से ही बनाये गये हैं । जैसा कि -
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(क) दशरथस्य अपत्यं पुमान् इति दाशरथिः ।
यहाँ अत इञ् । ४-१-९५ से अपत्यार्थक 'इञ्' तद्धित प्रत्यय का प्रवर्तन हुआ है।
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