Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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भी हमें यह साफ साफ बताती है कि - पाणिनि ने शुद्ध कर्तरिवाक्य की सिद्धि कर देने के बाद; उसी शुद्ध कर्तरि वाक्य का 'प्रेरक कर्तरि वाक्य' में कैसे रूपान्तरण किया जाता है ? उसका निरूपण किया है । यथा - (१) रामः वनं
गच्छति । इसमें से - (प्रयोज्य कर्ता) (कर्म) (शुद्ध कर्तरि क्रियापद)] [(स्वतन्त्रः कर्ता)
(अपिजन्त क्रियापद) , (२) दशरथः रामम् वनं गमयति । प्रेरक वाक्य बनाया जाता है। (प्रयोजक कर्ता) (प्रयोज्य कर्ता णिजन्त = प्रेरका
____ की 'कर्म' संज्ञा) क्रियापद । उपर्युक्त दो वाक्यों का परीक्षण करने से मालूम पड़ता है कि - दूसरे वाक्य में कुल मिला कर तीन परिवर्तन हुए हैं : (१) नये प्रयोजक-कर्ता के रूप में 'दशरथ:' पद नया आया है, (२) मूल (प्रथम) वाक्य का (प्रयोज्य) कर्ता 'राम' द्वितीय वाक्य में कर्मसंज्ञक हो कर द्वितीया विभक्ति में चला गया है, और (३) 'गच्छति' (अणिजन्त क्रियापद) का 'गमयति' (णिजन्त क्रियापद) में परिवर्तन हो गया है । इन में से दूसरे और तीसरे परिवर्तन की प्रक्रिया देखें तो - ____ पाणिनि ने कहा है कि - गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणाम् अणि कर्ता स
णौ । १-४-५२ अर्थात् 'गत्याद्यर्थक धातुओं के अणिजन्त कर्ता की णिजन्त में (= प्रेरकरचना . में) कर्मकारक संज्ञा होती है ।' जिसके कारण शुद्ध कर्तरि वाक्य का कर्ता 'रामः', प्रेरकरचना में कर्मसंज्ञक बनकर, कर्मणि द्वितीया । २-३-२ सूत्र से द्वितीया विभक्ति में परिवर्तित हो जाता है :- रामम् ।
और दूसरी और (गच्छति) क्रियापद में । गम्लु गतौ धातु को, हेतुमति च । ३-१-२६ सूत्र से प्रेरणार्थक णिच् (इ) लगता है : गम् + णिच् → इ = गमि । अब 'गमि जैसे णिजन्त अंश की सनाद्यन्ता धातवः । ३-१-३२ से 'धातु' संज्ञा होती है । जिसके परिणाम स्वरूप निम्नोक्त प्रक्रिया आगे बढ़ती है :
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