Book Title: Paniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Author(s): Vasantkumar Bhatt
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 29
________________ [20] यहाँ पर ध्यानास्पद बातें निम्नोक्त है :(क) पाणिनि ने जो समर्थानां प्रथमाद् वा । ४-१-८२ के अधिकार में, सभी तद्धित प्रत्ययों का विधान किया है, उस सूत्र में आया हुआ 'वा' पद अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि - उस विकल्पार्थक 'वा' शब्द से दोनों तरह की अभिव्यक्ति को मान्यता प्रदान की गई है । यथा - "उपगोः अपत्यं (पुमान्) गच्छति ।" कहो, अथवा "औपगवः गच्छति ।" कहो, उसमें कोई अन्तर नहीं है । (हाँ, यह जरूर कहना चाहिए कि डॉ. पोल किपास्र्की के मतानुसार पाणिनि ने जहाँ 'वा' शब्द से जो वैकल्पिक रूप का अवतार किया, वही सामान्यत: वरणीय होता है ।10) (ख)पाणिनीय–व्याकरण में दोनों तरह की अभिव्यक्तियां स्वीकार्य होते हुए भी, यह उल्लेखनीय है कि - पाणिनि ने विग्रह वाक्य से ही (= उपगोः अपत्यं पुमान्' से ही) वृत्तिजन्य 'औपगव' शब्द की सिद्धि-प्रक्रिया वर्णित की है । (ग) अतः ऐसी प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से रूपान्तरण के नियम (उदाहरण के लिए - तस्यापत्यम् । ४-१-१२, अत इञ् । ४-१-९५, स्त्रीभ्यो ढक् । ४-१-१२० कृत्तद्धितसमासाश्च । १-२-४६, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः । २-४-७१, यचि भम् । १-४-१८, यस्येति च । ६-४-१४८, तद्धितेष्वचामादेः । ७-२-११७, किति च । ७-२-११८ इत्यादि) प्रस्तुत किये गये है ।। (घ) पाणिनीय-व्याकरणतन्त्र के उत्तर गोलार्ध में प्रस्तुत होनेवाले रूपान्तरण के नियमों से साधित जो तद्धितान्त शब्द होते हैं, वे किसी अन्य वाक्य के कारकसमुदाय में से किसी का विशेषण (रूप अर्थ) बन सकते हैं । यथा - औपगवाद् ऋषेः 10. Contrary to tradition, the three words are not synyonmous, but are used to denote different perferences among optional variants. They are to be translated as follows : Va - ‘or rather', 'usually' - 'preferably'. Vibhāsa - 'or rather not', 'rarely', 'preferably not', 'marginally'. Anyatarasyam - either way', 'sometimes', 'optionally', alternatively. This three-way distinction enables Pāṇini's rules to register the stylistic preferences among variants which are characteristics of any living language in its natural state. - PANINI - AS A VARIATIONIST, by Paul Kiparsky, University of Poona, Pune, 1980 (p. 1). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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