Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 24
________________ कुछ प्रास्ताविक विचार । [ सिद्धसेन दिवाकरके ग्रन्थोंके प्रकाशनकी कुछ कथा ] मे स्वर्गवासी आद्य गुरु, पतिमवर श्री देवीसभी जिन्होंने मुझे सबसे पहले 'ॐ नमः सिद्धम्' का मंत्र सुनाया और 'अ आ इ ई' इत्यादि स्वरूप प्रथम मातृकापाठ पढाकर मेरे ज्ञानरूपी नेत्रोंका उन्मीलन किया उन्होंने मुझे पीछेसे 'भक्तामर' और 'कल्याणमन्दिर' नामक प्रसिद्ध दो जैन लोगों को भी कण्ठस्थ कराया। मेरी अवस्था उस समय प्रायः १०-१२ वर्षके बीच की थी। वि. सं. १९५४-५५ का वह समय था। आज उस कालको व्यतीत हुए प्रायः पूरे ५० वर्ष होने आये है बहुत सह तो नहीं लेकिन कुछ कुछ कारण अवश्य है कि गुरुजीने 'कल्याणमन्दिर' खोत्र सिखाते हुए इसके कर्ता- जो वेतांबर संमदायकी मान्यताके अनुसार सिद्धसेन दिवाकर कहे जाते हैं के बारेमें भी प्रसंगानुसार कुछ बातें सुनाई थीं उन वृद्ध यतिजनोंमें यह एक प्रवासी चली आती थी कि वे अपने मूतन शिष्योंको अपने पूर्वाचार्यकव्योतिष, वैद्यक और मंत्र-तंत्रादि प्रयुक्त चमत्कारोंका और प्रभावका माहात्म्यवर्णन सुनाया करते थे और उसके द्वारा अपने शिष्यों के मनमें उन उन विद्याओंके पढनेमें उत्कंठा और उत्साह उत्पन्न करते रहते थे। १ सिद्धसेन दिवाकर उस विक्रम राजाके गुरु थे जिसने उज्जयिनी में खापरिये चोरको ५२ वीरोंको, १४ योगिनियों आदिको वश किया था। सिद्धसेन सूरिने इस 'कल्याण मन्दिर' खोत्रके पाउसे उज्जयिनी के महाकालेश्वर के लिंगको फोड कर उसमेंसे पार्श्वनाथ भगवानकी मूर्ति प्रकट की थी । इत्यादि प्रकारकी चमत्कारिक कथाएं यथावसर गुरुजी सुनाया करते थे। उस अबोधावस्थायें कान में पढे हुए उन बातोंके कुछ अस्पष्ट संस्कार, मुझे जब जैन इतिहासके पढनेकी तरफ अधिक दषि उत्पन्न हुई, तब फिर शनैः बने जागृत होने लगे। २ पतिजीके स्वर्गवासवाद (जिनकी चरणोपासना करनेका दुर्भाग्य से मुझे सिर्फ प्रायः ३-३ ॥ वर्ष जितना ही समय मिला था ) मैं इधर उधर भटकता हुआ, स्थानकवासी संप्रदाय में दीक्षित हो कर बालसाधु बन गया । उस साधके साथ भ्रमण करते हुए सं. १९६०-६१ में मेरा उज्जयिनी जाना हुआ। वहां पर खापरिया चोरकी गुफा ६४ योगिनियोंका संभा, महाकालेश्वरका मन्दिर आदि इतिहासप्रसिद्ध स्थानोंके देखनेके निमित्त जानेका कभी कभी अवसर मिल जाता था। इससे विक्रम राजा और उनके गुरु सिद्धसेन दिवाकरकी जो कथाएं गुरुमीके मुखसे सुनी थीं उनकी कुछ कुछ स्मृति होने लगी। लेकिन उन स्थानकवासी संप्रदाय के साधुओंका इतिहासविषयक पत् किंचिद भी ज्ञान न होनेसे मेरी उस संस्कारस्मृतिके उद्बोधित होनेका कोई साधन नहीं मिला। एक दिन हम २-३ साधु मिल कर महाकालका मन्दिर देखने को चले गये। मन्दिरके द्वारपर बैठे हुए ब्राह्मण पंडे, हम जैन साधुओं को और उनमें भी फिर मुंदर मुखपट्टी बांधे हुए और मैले कुचेले वस्त्र धारण किये हुए स्थानकवासी साधुओंको - देख कर खूब हंसने लगे और तीन कटाक्ष करने लगे। कहने लगे 'क्या इंडिये महाराज ! ( माखवामें स्थानकवासी जैन साधुओंको लोक 'इंडियों के नामसे संबोधते हैं) महाकालेश्वरका दर्शन करनेको आये हो ?' हमने कहा- 'भाई, हम तो यों ही फिरते फिरते मन्दिर देखने चले आये हैं।' तब पंडाने कहा-'तुम लोग मन्दिरके अन्दर तो इस तरह नहीं जा सकते। यहीं बहारसे खडे खडे देखना हो तो देख लो । यदि मन्दिरके अन्दर जाना हो तो 'सिमाजी' (जो वहांकी प्रसिद्ध नदी है ) में जा कर खान करो, इन मैले कुचेले कपडोंको साबू, लगा कर धोडाको, मुंहपर जो पट्टी बांध रखी है और बगलमें जो गन्दा झाडू (जैन साधुओंके रजोहरणको उन्होंने झाकी उपमा दी ) दबा रखा है, उसे यहां बहार रख दो और फिर बंभोलेका दर्शन करो' इत्यादि । कहनेकी आवश्यकता नहीं कि हम लोग वहांसे चुपकेले, मन-ही-मनमें उस ब्राह्मण पंडेको गालियां देते हुए, अपने स्थानकमें चले आये । साथके और साधुओंके मनमें क्या आया सं, परंतु मेरे अमर्षशील इनमें तो उस समय बड़ी तीन उसेजमा उत्पन्न हुई भी होगा सो तो मैं जान नहीं मुझे अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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