Book Title: Nyayakumudchandra Part 1
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 14
________________ Xii न्यायकुमुदचन्द्र 'धर्म' पर की टिप्पणियों को लीजिये। इससे यह विदित हो जायगा कि ग्रन्थकार ने जो जैन सम्मत धर्म के विविध स्वरूप बतलाये हैं उन सबके मूल आधार क्या क्या हैं। इसके साथ साथ यह भी मालूम पड़ जायगा कि ग्रन्थकार ने धर्म के स्वरूप विषयक जिन अनेक मतान्तरों का निर्देश व खण्डन किया है वे हर एक मतान्तर किस किस परम्परा के हैं और वे उस परम्परा के किन किन ग्रन्थों में किस तरह प्रतिपादित हैं। यह सारी जानकारो एक संशोधक को भारतवर्षीय धर्म विषयक मन्तव्यों का आनखशिख इतिहास लिखने तथा उनकी पारस्परिक तुलना करने की महत्त्व पूर्ण प्रेरणा कर सकती है। यही बात अनेक छोटे बड़े टिप्पणों के विषय में कही जा सकती है। __प्रस्तुत संस्करण से दिगम्बरीय साहित्य में नव प्रकाशन का जो मार्ग खुला होता है, वह आगे के साहित्य-प्रकाशन में पथ प्रदर्शक भी हो सकता है। राजबार्तिक, तत्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री आदि अनेक उत्कृष्टतर ग्रन्थों का जो अपकृष्टतर प्रकाशन हुआ है उसके स्थान में आगे अब कैसा होना चाहिए, इसका नह नमूना है जो माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला में दिगम्बर पण्डितों के द्वारा ही तैयार होकर प्रसिद्ध हो रहा है। _ऐसे टिप्पणीपूर्ण ग्रन्थों के समुचित अध्ययन अध्यापन के साथ ही अनेक इष्ट परिवर्तन शुरू होंगे। अनेक विद्यार्थी व पण्डित विविध साहित्य के परिचय के द्वारा सर्वसंग्राही पुस्तकालय निर्माण की प्रेरणा पा सकेंगे, अनेक विषयों के, अनेक ग्रन्थों को देखने की रुचि पैदा कर सकेंगे। अंत में महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थों के असाधारण-योग्यतावाले अनुवादों की कमी भी उसी प्रेरणा से दूर होगी। संक्षेप में यों कहना चाहिए कि दिगम्बरीय साहित्य की विशिष्ट और महती आन्तरिक विभूति सर्वोपादेय बनाने का युग शुरू होगा। टिप्पणियाँ और उन्हें जमाने का क्रम ठीक है फिर भी कहीं कहीं ऐसी बात आ गई है जो तटस्थ विद्वानों को अखर सकती है। उदाहरणार्थ 'प्रमाण' पर के अवतरण-संग्रह को लीजिये इसके शुरु में लिख तो वह दिया गया है कि क्रम-विकसित प्रमाण-लक्षण इस प्रकार है। पर फिर उन प्रमाण-लक्षणों का क्रम जमाते समय क्रम विकास और ऐतिहासिकता भुला दी गई है। तटस्थ विचारक को ऐसा देख कर यह कल्पना हो जाने का संभव है कि जब अवतरणों का संग्रह सम्प्रदायबार जमाना इष्ट था तब वहाँ क्रम-विकास्त्र शब्द के प्रयोग की जरूरत क्या थी? _____ऊपर की सूचना मैं इसलिए करता हूँ कि आयंदा अगर ऐतिहासिक दृष्टि से और क्रम विकास दृष्टि से कुछ भी निरूपण करना हो तो उसके महत्त्व की और विशेष ख्याल रहे। परंतु ऐसी मामूली और अगण्य कमी के कारण प्रस्तुत टिप्पणियों का महत्त्व कम नहीं होता। अंत में दिगम्बर परम्परा के सभी निष्णात और उदार पंडितों से मेरा नम्र निवेदन है कि, वे अब विशिष्ट शास्त्रीय अध्यवसाय में लग कर सर्व संग्राह्य हिंदी अनुवादों की बड़ी भारी कमी को जल्दी से जल्दी दूर करने में लग जायँ और प्रस्तुत कुमुदचन्द्र के संस्करण को भी भुला देने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संस्करण तैयार करें। विद्याप्रिय और शास्त्रभक्त दिगम्बर धनिकों से मेरा अनुरोध है कि वे ऐसे कार्यों में पंडित-मंडली को अधिक से अधिक सहयोग दें।

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