Book Title: Nyayakumudchandra Part 1
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 27
________________ प्रस्तावना सिद्धसेन ने प्रमाण और नय का निरूपण करने के लिये हो न्यायावतार नाम का स्वतंत्र प्रकरण रचा। जैनवाङ्मय में न्याय का अवतार करनेवाले श्री सिद्धसेन ही हैं। दिङ्नाग को बौद्धदर्शन का पिता कहा जाता है। उनका प्रमाणसमुच्चय मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है / दिङ्नाग के ग्रन्थों का अवलम्बन लेकर ही धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक प्रमाणविनिश्चय आदि ग्रन्थरत्नों की रचना की थी। सिद्धसेन, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के प्रमाणविषयक प्रकरणों ने लघीयस्त्रय की रचना में योगदान किया हो, ऐसा प्रतीत होता है। मध्यकालीन भारतीयन्याय के निर्माता जैन और बौद्ध ग्रन्थकारों के प्रमाणविषयक इन प्रकरणों के सम्बन्ध में डा० विद्याभूषण ने लिखा है___"The prakaranas ( Manuals) are in fact remarkable for their occuracy and liccidity as well as for their direct handling of various topics in their serial orders. Definitions of terms are broad and accurate and not full of niceties." Indian logic. P. 356. अर्थात्-ये प्रकरण अपनी सुगमता और यथार्थता के लिये उल्लेखनीय हैं। साथ ही साथ विभिन्न विषयों पर क्रमबद्ध रूप में ये साक्षात् प्रकाश डालते हैं। इनमें दत्त परिभाषाएँ स्पष्ट और यथार्थ होती हैं। रचनाशैली-ग्रन्थकार ने अपने सभी प्रकरणों में प्रायः एक ही शैली का अनुसरण किया है। प्रारम्भ में वे मंगलाचरण करते हैं, उसके बाद एक पद्य के द्वारा कण्टकशुद्धि आदि करके प्रकृत विषय का प्रतिपादन प्रारम्भ करते हैं। प्रकृत ग्रन्थ, न्यायविनिश्चय तथा सिद्धिविनिश्चय में यही क्रम अपनाया गया है। वे अपने प्रकरणों को केवल कारिकाओं में ही रचकर समाप्त नहीं करते, किन्तु उन पर वृत्ति भी रचते हैं। अब तक उनका एक भी ग्रन्थ ऐसा नहीं * मिला, जिसपर उन्होंने वृत्ति न रची हो। वृत्ति रचने का उनका उद्देश्य केवल कारिकाओं का व्याख्यान करना ही नहीं होता किन्तु उसके द्वारा वे कारिका में प्रतिपादित विषय से सम्बन्ध रखनेवाले अन्य विषयों का विवेचन और आलोचन भी करते हैं। किसी किसी कारिका की वृत्ति तो कारिका के आशय पर प्रकाश न डालकर नूतन बात का ही चित्रण करती है। अकलंकदेव की अन्य रचनाओं की अपेक्षा लघीयत्रय और उसकी विवृति कुछ सुगम प्रतीति होती है, न तो न्यायविनिश्चय की कारिकाओं के जितनी उसकी कारिकाएँ ही दुरूह हैं और न अष्टशती के जितनी वृत्ति ही गहन है / किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि उसमें अकलंकदेव की प्रखर तर्कणा और गहन रचना की छाप नहीं है / वास्तव में अकलंकदेव के वाक्य अतिगम्भीर अर्थबहुल सूत्र जैसे होते हैं और उनका पूर्वापरसबन्ध जोड़ने के लिये स्याद्वादविद्यापति विद्यानन्द और अनन्तवीर्य जैसे प्रतिभासंपन्न विद्वानों की आवश्यकता होती है। लघीयत्रय और उसकी विवृति को बाँचने से विद्वान् उनकी गहनता का अनुमान कर सकेंगे। लघीयत्रय की कारिकाएँ, उनकी विवृति, परिच्छेद, प्रमाणविषयक चर्चा और रचनाशैली दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय और उसकी स्वोपज्ञविवृति का स्मरण कराती हैं। तथा, उसके तीन प्रकरणों का प्रवेश नाम दिङ्नाग के न्यायप्रवेश का ऋणी प्रतीत होता है / १"प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः / तत्र नानुपलब्धे न निणांतेऽर्थे न्यायः प्रवर्तते, किन्तर्हि 1 संशयिते / / न्यायभाष्य 111 / 1 /

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