________________ न्यायकुमुदचन्द्र से ही सत्यज्ञान की उत्पत्ति माननी चाहिए। अतः इन्द्रिय और मन को ज्ञान का कारण, तथा अर्थ को उसका विषय मानना ही श्रेयस्कर है। का० 55 में सन्निकर्ष के प्रामाण्य का निरसन करके ज्ञान को ही प्रामाण्य सिद्ध किया है। विवृति में कारिका का व्याख्यान करके आलोक को भी ज्ञान का कारण मानने का खण्डन किया है। न्या० कु. में का० 51 से 55 तक व्याख्यानमात्र किया है। ___का० ५६–में कहा है कि अन्धकार का तो प्रत्यक्ष होता है किन्तु अन्धकार से आवृत वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता। विवृति में कारिका के मन्तव्य को समझाते हुए सिद्ध किया है कि ज्ञान का रोधक ज्ञानावरणीय कर्म है, अन्धकारादि नहीं। न्या० कु० में, ज्ञान की अनुत्पत्तिमात्र ही तम है' इस मत की आलोचना करके तम और छाया को द्रव्य सिद्ध किया है / ___ का० 57 में कहा है कि जैसे मल से आच्छादित मणि की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से देखी जाती है उसी तरह कमों से आवृत आत्मा के ज्ञान का विकास भी हीनाधिकरूप से अनेक प्रकार का देखा जाता है / विवृति में बतलाया है कि अपने 2 योग्य ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार मन और इन्द्रियाँ ही ज्ञान को उत्पन्न करती हैं, अर्थ और आलोक नहीं। का०५८–में बौद्धों का निराकरण करते हुए कहा है कि तदुत्पत्ति, तादृप्य और तदध्यवसाय न तो प्रथक 2 ही ज्ञान के प्रामाण्य में कारण हैं और न मिलकर ही। विवृति में तदत्पत्ति. ताद्रप्य और तदध्यवसाय का निराकरण किया है। का० 59 में उक्त चर्चा का उपसंहार करते हुए कहा है कि जैसे अपने कारणों से उत्पन्न होने पर भी अर्थ ज्ञान का विषय होता है उसी प्रकार अपने कारणों से उत्पन्न होने पर भी ज्ञान अर्थ को जानता है। विवृति में निष्कर्ष निकालते हुए कहा है कि अर्थ और ज्ञान में तदुत्पत्तिसम्बन्ध न होने पर भी स्वाभाविक प्राह्य प्राहकसम्बन्ध है। का०६० में कहा है कि ज्ञान स्व और पर का निर्णायक है अतः उसे ही मुख्य प्रमाण मानना चाहिए। विवृति में कहा है कि निश्चयात्मकता के बिना ज्ञान में अविसंवादकता नहीं आ सकती। आगे निर्विकल्पक ज्ञान से सविकल्पक की उत्पत्ति माननेवाले बौद्धों को लक्ष्य करके लिखा है कि जो स्वयं निर्विकल्पक है वह सविकल्पक को उत्पन्न नहीं कर सकता। का०६१–में और उसकी विवृति में प्रमाण के भेद-प्रभेदों की चर्चा प्रतिज्ञानुसार की गई है। प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष / प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-इन्द्रिय, अनिन्द्रिय और अतीन्द्रिय / इन्द्रियप्रत्यक्ष के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के भी चार भेद हैं-स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध / श्रुतज्ञान परोक्ष है और उसमें अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव होता है। का० 62- में श्रुतप्रमाण के दो उपयोग बतलाये हैं। उनमें से एक का नाम स्याद्वाद है और दूसरे का नाम नय है। संपूर्ण वस्तु के कथन को स्यादाद कहते हैं और उसके एकदेश के कथन को नय कहते हैं। विवृति में स्याद्वाद और नय का निरूपण विस्तार से किया है। और बतलाया है कि 'स्यात् जीव एव' यह प्रमाणवाक्य है और 'स्यादस्त्येव जीवः' यह नयवाक्य है। न्या० कु. में का० 57 से 62 तक व्याख्यानमात्र है। का० ६३–में कहा है कि प्रत्येक वाक्य के साथ 'स्यात्' शब्द और 'एव' शब्द का प्रयोग भावश्यक है। यदि किसी वाक्य के साथ उनका प्रयोग न किया गया हो तो भी अर्थवशात