________________ 24 न्यायकुमुदचन्द्र त्मक वस्तु का ज्ञाता ही ऐसे वाक्य का प्रयोग कर सकता है। अतः उसे प्रमाणवाक्य भी कहते हैं। तथा, अनेकधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध करानेवाले वाक्य को नयश्रुत कहते हैं, इसे विकलादेश भी कहते हैं / इस प्रकार श्रुत के दो उपयोग बतलाकर अकलंकदेव ने विवति में दोनों के प्रयोग में कुछ अन्तर बतलाया है। वे लिखते हैं कि 'स्यात् जीव एव' यह प्रमाण वाक्य या सकलादेश है और 'स्यादस्त्येव जीवः' यह नयवाक्य या विकलादेश है। इससे यह आशय निकलता है कि धर्मिवाचक शब्दों के साथ स्यात् और एवकार का यदि प्रयोग किया जाता है तो वह सकलादेश है और यदि धर्मवाचक शब्दों के साथ उक्त दोनों पदों का प्रयोग किया जाता है तो वह विकलादेश है। किन्तु अपने राजवार्तिक में अकलंकदेव ने दोनों प्रकार के वाक्यों का एक ही उदाहरण 'स्यादस्त्येव जीव:' दिया है और उसके उभयरूप होने में युक्तियाँ भी दी हैं। जहाँ तक हम जानते हैं लघीयत्रय में प्रदर्शित मन्तव्य का अनुसरण उत्तरकालीन किसी भी आचार्य ने नहीं किया। प्रायः सभी ने दोनों प्रकार के वाक्यों का एक ही उदाहरण दिया है और प्रयोक्ता के दृष्टिकोण में अन्तर बतलाकर उसे ही प्रमाणवाक्य और उसे ही नयवाक्य बतलाया है। आचार्य विद्यानन्द ने तो स्पष्ट लिखा है कि समस्त शब्द किसी न किसी धर्म की अपेक्षा से ही व्यवहृत होते हैं। जैसे, जीव शब्द जीवनगुण की अपेक्षा से ही व्यवहृत होता है। इस प्रकार लघीयत्रय में प्रतिपादित उक्त मन्तव्य का प्रसार उत्तर काल में नहीं हो सका। इसी प्रकार प्रमाणों की परम्परा के सम्बन्ध में भी लघीयत्रय में एक नवीनता पाई जाती है। उसमें स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष में अन्तर्भूत किया है, किन्तु उत्तरकालीन आचार्यों ने इसे भी नहीं अपनाया और वे परोक्ष में ही अन्तभूत किये गये। इसका विशेष विवेचन आगे किया जायेगा। यहाँ तो केवल इतना ही बतलाना है कि लघीयत्रय के उक्त दो मन्तव्यों का अनुसरण नहीं किया गया, किन्तु शेष को सभी ने एक स्वर से अपनाया है। श्रीमद्भट्टाकलङ्क प्राकथन लघीयत्रय और उसकी विवृति के रचयिता श्रीमद् भट्टाकलङ्कदेव का स्थान जैनवाङमय में अनुपमेय है। यद्यपि उनकी सभी कृतियाँ अतिगहन और प्रखर दार्शनिकों के लिये भी दुरूह हैं, उनमें से एक भी कृति ऐसी नहीं है जो स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्डश्रावकाचार और उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की तरह जनसाधारण में प्रचलित हो, किन्तु जैनसमाज में ऐसे विरले ही मनुष्य होंगे जो उनके नामसे परिचित न हों और अकलङ्क नाम को सुनकर जिनके मस्तक श्रद्धा से नत न हो जाते हों। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी होते हुए भी जैनों के दोनों सम्प्रदायों के महान ग्रन्थकारों ने आदर के साथ उनका स्मरण किया है और जैनन्याय में उनके द्वारा समाविष्ट किये गये मन्तव्यों को किसी भेदभाव के बिना ज्यों का त्यों अपनाया है। इन्हें 'जैनन्याय के सर्जक' कहे जाने का सौभाग्य प्राप्त है और उनके नाम के आधार पर जैनन्याय को श्लेषात्मक 'अकलङ्कन्याय' शब्द से कहा है जो वीतराग जिन और उनके . 1 पृ.१८१, बा. 18 / 2 त० श्लोकवार्तिक पृ. 137, का. 56 /