________________ प्रस्तावना कारण होने पर भी दोनों में एक मौलिक अन्तर है, ज्ञान अनेक वस्तुओं को या एक वस्तु के अनेक धर्मों को युगपत् जान सकता है किन्तु शब्द में यह शक्ति नहीं है कि वह उन्हें एकसाथ कह सके, वह तो एक समय में एक वस्तु या उसके एक धर्म को ही कह सकता है। अतः एक वस्तु के प्रतिपादक वक्ता के ज्ञान को श्रुत और उसके एक धर्म के प्रतिपादक वक्ता के ज्ञान को नय कहते हैं। भारतीय दार्शनिकों ने प्रमाणशास्त्र और शब्दशास्त्र के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया है और शब्द से अर्थ का बोध किस प्रकार होता है इस पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। किन्तु वस्तु और वस्त्वंश के वाच्य-वाचक के भेद का विवेचन उन्होंने नहीं किया, इसी से प्रमाण के भेद नय का उल्लेख जैनदर्शन के सिवाय इतर दर्शनों में नहीं पाया जाता है और उसका कारण उनका एकान्तवादी होना है। किन्तु अनेकान्तवादी होने के कारण जैनदर्शन ने शब्द की प्रतिपादकत्वशक्ति पर भी विचार किया और उसकी असामर्थ्य का अनुभवन करके 'स्याद्वाद' के सिद्धान्त का आविष्कार किया। उसने देखा कि वस्तु के अनन्तधर्मा होने पर भी वक्ता अपने अपने दृष्टिकोण से उसका विवेचन करते हैं / द्रव्यदृष्टिवाला उसे नित्य कहता है, पर्यायदृष्टिवाला उसे अनित्य कहता है, अतः इन विभिन्न दृष्टियों का समन्वय होना आवश्यक है। इसके लिये जैनसिद्धान्त में नय का आविर्भाव हुआ, जो ज्ञाता के अभिप्राय को बतलाता है। इस प्रकार जैनशासन की मूलदृष्टि अनेकान्तवाद में से दो सिद्धान्तों का उद्गम हुआ। स्याद्वाद वस्तु को अनेकधर्मात्मक बतलाता है, नयवाद उसके किसी एक धर्म का कथन करनेवाले के दृष्टिकोण को बतलाता है। लघीयस्त्रय के प्रमाणप्रवेश में प्रमाण का और नयप्रवेश में नय का कथन करने पर भी दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध का स्पष्टीकरण नहीं किया है। इसलिए प्रवचनप्रवेश में प्रमाण के भेदों को गिनाकर श्रतप्रमाण के दो उपयोग बतलाये हैं-स्याद्वाद और नय, तथा यह भी बतलाया है कि नय श्रतप्रमाण के ही भेद हैं / अतः प्रवचनप्रवेश की रचना में अकलंकदेव की वही दृष्टि नहीं है जो पहले के दो प्रवेशों में है। द्विरुक्ति होने पर भी उसमें मौलिकता है और वह मौलिकता जैनन्याय से ही सम्बन्ध रखती है। श्रुत के दो उपयोग शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के आधीन है। अतः वक्ता वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म की मुख्यता से वचनप्रयोग करता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह वस्तु सर्वथा उस एक धर्मस्वरूप ही है। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि वहाँ पर विवक्षित धर्म की मुख्यता और शेष धर्मों की गौणता है। इसी लिये गौणधर्मो का द्योतक 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्यों के साथ गुप्तरूप से सम्बद्ध रहता है / भगवान महावीर ने अपने अनुपम वचनों के द्वारा पूर्ण सत्य का उपदेश किया और उनका उपदेश संसार में 'श्रुत' के नाम से ख्यात हुआ। भगवान महावीर के उपदेश का प्रत्येक वाक्य 'स्यात् ' 'कथञ्चित् ' या किसी अपेक्षा से होता था, क्योंकि उसके बिना पूर्ण वस्तु का कथन नहीं हो सकता अतः उनके उपदेश 'श्रत' को आचार्य समन्तभद्र ने 'स्याद्वाद' के नाम से सम्बोधित किया है। उन्हीं का अनुसरण करते हुए अकलंकदेव ने श्रुत के दो उपयोग बतलाये हैं-एक स्याद्वादश्रुत और दूसरा नयश्रुत / एक धर्म के द्वारा अनन्तधर्मात्मक वस्तु का बोध करानेवाले वाक्य को स्याद्वाद श्रुत कहते हैं। यह वाक्य पूर्ण वस्तु का बोध कराता है, अतः उसे सकलादेश भी कहते हैं। और अनेक धर्मा