________________ प्रस्तावना ज्ञानमाधं मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधनम् / प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् // इसका सीधा अर्थ है कि-"मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोधज्ञान, नामयोजना से पहले आद्य अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं और शब्दयोजना होने पर श्रुत अत एव परोक्ष हैं।" आचार्य विद्यानंद और अभयदेवंसूरि ने इसका यही अर्थ किया है। किन्तु प्रभाचन्द्र ने कारिका की वृत्ति को दृष्टि में रखकर 'आद्य' शब्द का अर्थ 'कारण' किया है / विवृति में लिखा है कि धारणा स्मृति का कारण है, स्मृति संज्ञा का, संज्ञा चिन्ता का, आदि आदि / इसी को दृष्टि में रखकर प्रभाचन्द्र उक्त कारिका का अर्थ करते हुए लिखते हैं" शब्दयोजना से जो अस्पष्ट ज्ञान होता है उसे श्रुत कहते हैं / तथा शब्दयोजना से पहले शब्दोन्मुख ज्ञान को भी श्रुत कहते हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ज्ञान श्रुत हैं और उनका कारण मतिज्ञान है / " प्रभाचन्द्रजी के इस भ्रम का एक कारण तो विवृति ही जान पड़ती है। दूसरा कारण, कारिका से स्पष्टतया स्वतः प्रकट होनेवाले अर्थ का आगम और परम्परा के विरुद्ध होना हो सकता है, क्योंकि स्मृति आदि ज्ञानों को किसी ने भी प्रत्यक्ष नहीं माना है। किन्तु अकलंकदेव ने 61 वी कारिका की विवृति में स्मृति आदि ज्ञानों को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष के भेद बतलाया है और वही बात इस कारिका में भी कही गई है। अतः यथार्थ में प्रभाचन्द्र दार्शनिक होने की अपेक्षा तार्किक अधिक प्रतीत होते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में, जो कि उनके आरम्भिक काल की रचना है, उनकी तर्कशैली खूब विकसित हुई है। जैनेतर ग्रन्थों में से जिन ग्रन्थों का न्यायकुमुदचन्द्र की शैली पर विशेष प्रभाव पड़ा है, वे हैं तत्त्वसंग्रह की कमलशीलकृत पञ्जिका और जयन्तभट्ट की न्यायमञ्जरी। क्या भाषासौष्ठव और क्या प्रतिपादनशैली, दोनों ही दृष्टि से प्रभाचन्द्र कमलशील और जयन्तभट्ट के ऋणी प्रतीत होते हैं। किन्तु उन्होंने इस साहित्यिक ऋण को जिस विद्वत्ता और वाक्पटुता से ब्याजसहित चुकाया है। उसकी सराहना करते ही बनता है। नीचे प्रत्येक दर्शन के तत्तद् प्रन्थकारों के साथ प्रभाचन्द्र की तुलना क्रमशः की जाती है न्यायदर्शन-न्यायदर्शन के न्यायसूत्र, भाष्य, वार्तिक और तात्पर्यटीका का उपयोग प्रभाचन्द्र ने पूर्वपक्ष के स्थापन में किया है। न्यायभाष्य के उद्देश, लक्षणनिर्देश, और परीक्षा के क्रमानुसार अपने ग्रन्थप्रणयन में भी उन्होंने इसी क्रम को स्थान दिया है / तथा चतुर्थ भेद विभाग का अन्तर्भाव-न्यायमञ्जरीकार भट्ट जयन्त के ही शब्दों में-उद्देश में किया है / इस प्रकार षोडश पदार्थ के निरूपण में न्यायसूत्र का प्रमाण रूप से उल्लेख करने पर भी उनका निरूपण भाष्य और मञ्जरी के ही शब्दों में किया है। कहीं कहीं प्रभाचन्द्र ने मञ्जरी के शब्दों को भी 'तथाचाह न्यायभाष्यकार:' करके उद्धृत किया है / यद्यपि तात्पर्यटीका का भी अस्पष्ट आश्रय लिया 1 "अत्र अकलङ्कदेवाः प्राहुः-"ज्ञानमाद्यं स्मृतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् / प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् / " इति / तत्रेदं विचार्यते मतिज्ञानादाद्यादभिनिबोधिकपर्यन्ताच्छेषं श्रुतं शब्दानुयो नादेव इत्यवधारणम् श्रुतमेव शब्दानुयोजनादिति वा / " त० श्लो० पृ. 239 / 2 "अत्र च यच्छब्दसंयोजनात्प्राक् स्मृत्यादिक्रमविसम्वादिव्यवहारनिवर्तनक्षम प्रवर्तते तन्मतिः, शब्दसंयोजनात् प्रादुर्भूतं तु सर्व श्रुतमिति विभावः / " सन्मति० टी० पृ०५५३ /