________________ प्रस्तावना का०३-तीसरी कारिका में स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाकर उसके दो भेद किये हैं, एक मुख्य प्रत्यक्ष और दूसरा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, तथा शेष अस्पष्ट ज्ञान को परोक्ष बतलाया है। विवृति में अज्ञानरूप सन्निकर्षादि के प्रामाण्य का निरसन करके तत्त्व का निर्णय करने में साधकतम ज्ञान को प्रमाण सिद्ध किया है। ___न्या० कु० में सम्बन्ध, अभिधेय आदि को चर्चा करके कारिका का व्याख्यान करने के बाद, विवृति का व्याख्यान करते हुए, योगों के सन्निकवाद, भट्ट जयन्त के कारकसाकल्यवाद, सांख्यों के इन्द्रियवृत्तिवाद, प्राभाकरों के ज्ञातृव्यापारवाद, बौद्धों के निर्विकल्पकप्रामाण्यवाद तथा विपर्ययज्ञान को भिन्न 2 रूप से मानने वाले वादियों की विवेकाख्याति आदि विप्रतिपत्तियों का निरसन करके प्रत्यक्षकप्रमाणवादी चार्वाक की आलोचना की है। समन्वय-विवृति के सन्निकादि शब्द से विभिन्न प्रामाण्यवादों का सङ्कलन किया है। विपर्यास शब्द का अवलम्बन लकर ख्यातियों की चर्चा की है और परोक्षप्रमाण का समर्थन करने के लिये चार्वाक के मत की आलोचना की है। का०४~में वैशद्य और अवैशद्य का स्वरूप बतलाया है। उसकी विकृति में सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष के दो भेद-इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष-करके अतीन्द्रियज्ञानी सर्वज्ञ की सिद्धि की है / न्या० कु. में विवृति का व्याख्यान करते हुए श्रोत्र के अप्राप्यकारित्व, चक्षु के प्राप्यकारित्व सर्वज्ञाभाव तथा सांख्य और योग के ईश्वरवाद की आलोचना की है / समन्वय-इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्य कारित्व की चर्चा व्याख्याकार से ही सम्बन्ध रखती है विवृति में उसका संकेत तक भी नहीं है। विवृतिकार ने सर्वज्ञ की चर्चा की है और उसी के सम्बन्ध से व्याख्याकार ने ईश्वरवाद का खण्डन किया है। का०५-में अवग्रह, ईहा और अदाय का स्वरूप बतलाया है। विवृति में उसी को स्पष्ट करते हुए प्रसङ्गवश, विषय, विपी, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय तथा लब्धि और उपयोग का भी स्वरूप बतलाया है / तथा यह भी बतलाया है ज्ञान के इन भेदों में अवस्थाभेद स नामभेद है। न्या० कु. में विवृत्ति का व्याख्यान करते हुए संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत, आदि की आलोचना की है। तथा इन्द्रियों को भौतिक मानने वाले नैयायिक और आहङ्कारिक मानने वाले सांख्यों के मत की समीक्षा करके अतीन्द्रियशक्ति का समर्थन किया है। अन्त में ज्ञान की साकारता की भी चर्चा की है। __समन्वय-इन्द्रियों का विषय द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु बतलाने के कारण व्याख्याकार ने अद्वैतवादों की समीक्षा की है / इन्द्रियों को पौद्गलिक सिद्ध करने के लिए नैयायिक और सांख्य की समीक्षा की है। लब्धि के लक्षण में आगत शक्तिशब्द का आश्रय लेकर शक्ति की सिद्धि की है। 'अर्थ' पद से ज्ञान की साकारता, निराकारता की चर्चा की है। का०६-के पूर्वार्द्ध में धारणा का स्वरूप बतलाकर उन्हें मतिज्ञान का भेद बतलाया है। विवृति में धारणा को ही संस्कार नाम देकर, ईहा और धारणा को ज्ञानस्वरूप मानने की सम्मति दी है। न्या० कु. में व्याख्यानमात्र है। का०६-७-में उक्त चारों ज्ञानों में से प्रत्येक के बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिस्कृत, अनक्त. ध्रव, तथा इनके विपरीत एक, एकविध आदि भेद करके मतिज्ञान के 48 भेद किये हैं और