________________ न्यायकुमुदचन्द्र विवृति-यह विवृति लघीयस्त्रयकार की ही कृति है जैसा कि हम आगे प्रमाणित करेंगे। प्रथम परिच्छेद के प्रारम्भ के दो श्लोकों पर, पञ्चम परिच्छेद के अन्तिम दो पद्यों पर, षष्ठ परिच्छेद के आदि श्लोक पर तथा सातवें परिच्छेद के अन्तिम दो पद्यों पर विवृति नहीं है, शेष पर है। न्यायकुमुदचन्द्र-उक्त दोनों ग्रन्थों के व्याख्यान का नाम न्यायकुमुदचन्द्र है। सन्धियों में इसे लघीयस्त्रयालङ्कार विशेषण से अभिहित किया है। विवृति की किसी 2 प्रति की सन्धियों में "भट्टाकलङ्कविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे" लिखा है और पुष्पदन्तकृत आदिपुराण के टिप्पण में भी किसी टिप्पणकार ने अकलंक को न्यायकुमुदचन्द्रोदय का कर्ता लिखा है। किन्तु यह केवल भ्रान्ति है जो लेखकों की कृपा का फल है अतः मूल ग्रन्थ का नाम लघीयत्रय और व्याख्यानग्रन्थ का नाम न्यायकुमुदचन्द्र ही जानना चाहिए / प्रारम्भ के दो परिच्छेदों पर खूब विस्तृत व्याख्यान किया है और अन्य दर्शनों में अभिमत प्रमाण और प्रमेय की चर्चा का मण्डनपूर्वक खण्डन करने के कारण इन दो परिच्छेदों की व्याख्या का परिमाण शेष पाँच परिच्छेदों की व्याख्या के लगभग बराबर बैठ जाता है। इसी से इस खण्ड में केवल दो ही परिच्छेद दिये गये हैं / अवशिष्ट पाँच परिच्छेद दूसरे खण्ड में रहेंगे। न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता ने प्रत्येक परिच्छेद के व्याख्यान के अन्त में समाप्तिसूचक पद्य दिये हैं और ग्रन्थ के अन्त में अपनी प्रशस्ति भी दी है। मूलग्रन्थ से व्याख्यान का परिमाण लगभग पन्द्रहगुना है। . 2. ग्रन्थों पर समालोचनात्मक विचार लघीयस्त्रय सविकृति प्रकरणग्रन्थ-प्रन्थपरिचय में हम लिख आये हैं कि लघीयत्रय एक प्रकरण है / जो शास्त्र के एकदेश से सम्बन्ध रखता हो, तथा जिसमें, शास्त्र में अप्रतिपादित विषयों पर भी प्रकाश डाला गया हो उसे प्रकरण कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार लघीयस्त्रय शास्त्र अर्थात् मोक्षशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के एक देश से सम्बन्ध रखता है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में मुख्यतया जीवादि तत्त्वों का निरूपण है किन्तु प्रथम अध्याय में प्रमाण, नय और निक्षेप की भी चर्चा की गई है। परन्तु लघीयलय में प्रमाण, नय और निक्षेप की ही विस्तृत चर्चा की गई है, तथा कुछ ऐसे विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है, जो तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित नही हैं, अतः वह प्रकरण कहा जाता है। यद्यपि गौतम ने न्यायसूत्र की रचना करके वस्तुपरीक्षा में उपयोगी प्रमाण, वाद आदि साधनों पर क्रमबद्ध ग्रन्थ रचने की प्रणाली को प्रचलित किया और उसके बाद नागार्जुन, आर्यदेव, मैत्रेय, वसुबन्धु आदि बौद्धनैयायिकों ने उन पर अनेक ग्रन्थ रचे, किन्तु इस ढंग के सुसम्बद्ध प्रकरणग्रन्थ रचने का सर्वप्रथम श्रेय बौद्धदर्शन में आचार्य दिङ्नाग को और जैनदर्शन में आचार्य सिद्धसेन को ही प्राप्त है। यद्यपि सिद्धसेन से पहले आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में दार्शनिक शैली का अवलम्बन लिया और सूत्रकार उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नय की चर्चा की, किन्तु आचार्य .. 1 “शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् / आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः // " सप्तपदार्थी।