Book Title: Nyayakumudchandra Part 1
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 13
________________ प्राकथन Xi मैंने यह पहले ही सोच रक्खा था कि अपनी ओर से बिना कुछ किये औरों को कहने का कोई विशेष अर्थ नहीं। इस दृष्टि से किसी समय आप्तमीमांसा का अनुवाद मैंने प्रारम्भ भी किया, जो पीछे रह गया। इस बीच में सन्मतितर्क के संपादन काल में कुछ अपूर्व दिगम्बरीय प्रन्थरत्न मुझे मिले, जिनमें से सिद्धिविनिश्चय टीका एक है। न्यायकुमुदचन्द्र की लिखित प्रति जो 'आ०' संकेत से प्रस्तुत संस्करण में उपयुक्त हुई है वह भी श्रीयुत प्रेमीजी के द्वारा मिली। जब मैंने उसे देखा तभी उसका विशिष्ट संस्करण निकालने की वृत्ति बलवत्तर हो गई। उधर प्रेमीजी का तकाज़ा कि मदद मैं यथा संभव करूँगा पर इसका सन्मति जैसा तो संस्करण निकालो ही। इधर एक साथ अनेक बड़े काम जिम्मे न लेने की निजी मनोवृत्ति / इस द्वंद्व में दश वर्ष बीत गये। मैंने इस बीच दो बार प्रयत्न भी किये पर वे सफल न हुए। एक उद्देश्य मेरा यह रहा कि कुमुदचन्द्र जैसे दिगम्बरीय ग्रन्थों के संस्करण के समय योग्य दिगम्बर पंडितों को ही सहचारी बनाऊँ जिससे फिर उस परम्परा में भी स्वावलंबी चक्र चलता रहे / इस धारणा से अहमदाबाद में दो बार अलग अलग से, दो दिगंबर पंडितों को भी, शायद सन् 1926-27 के आसपास, मैंने बुलाया पर कामयाबी नहीं हुई, वह प्रयत्न उस समय वहीं रहा, पर प्रेमीजी के तकाजे और निजी संकल्प के वश उसका परिपाक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया, जिसे मूर्त करने का अवसर 1933 की जुलाई में काशी पहुँचते ही मुझे दिखाई दिया / पं० कैलाशचन्द्रजी तो प्रथम से ही मेरे परीचित थे, पं० महेन्द्रकुमारजी का परिचय नया हुआ / मैंने देखा कि ये दोनों विद्वान् कुमुद का कार्य करें तो उपयुक्त समय और सामग्री है / दोनों ने बड़े उत्साह से काम को अपनाया और उधर से प्रेमीजी ने कार्य साधक आयोजन भी कर दिया, जिसके फल स्वरूप यह प्रथम भाग सबके सामने उपस्थित है। ___इसे तैयार करने में पंडित महाशयों ने कितना और किस प्रकार का श्रम किया है उसे सभी अभिन्न अभ्यासी आप ही आप जान सकेंगे। अतएव मैं उस पर कुछ न कह कर सिर्फ प्रस्तुत भाग गत टिप्पणियों के विषय में कुछ कहना उपयुक्त समझता हूँ। __मेरी समझ में प्रस्तुत टिप्पणियाँ दो दृष्टि से की गई हैं। एक तो यह कि ग्रन्थकार ने जिस जिस मुख्य और गौण मुद्दे पर जैनमत दर्शाते हुए अनुकूल या प्रतिकूल रूप से जैनेतर बौद्ध ब्राह्मण परम्पराओं के मतों का निर्देश व संग्रह किया है वे मत और उन मतों की पोषक परम्पराएँ उन्हीं के मूलभूत ग्रन्थों से बतलाई जायँ ताकि अभ्यासी ग्रन्थकार की प्रामाणिकता जानने के अलावा यह भी सविस्तर जान सके कि अमुक मत या उसको पोषक परम्परा किन मूलग्रन्थों पर अवलंबित है और उसका असली भाव क्या है ? इस जानकारी से अभ्यासशील विद्यार्थी या पंडित प्रभाचन्द्रवर्णित दर्शनान्तरीय समस्त संक्षिप्त मुद्दों को अत्यन्त स्पष्टता पूर्वक समझ सकेंगे और अपना स्वतन्त्र मत भी बाँध सकेंगे। दूसरी दृष्टि टिप्पणिओं के विषय में यह रही है कि प्रत्येक मन्तव्य के तात्त्विक और साहित्यिक इतिहास की सामग्री उपस्थित की जाय जो तत्त्वज्ञ और ऐतिहासिक दोनों के संशोधन कार्य में आवश्यक है। ____ अगर प्रस्तुत भाग के अभ्यासी उक्त दोनों दृष्टियों से टिप्पणियों का उपयोग करेंगे तो वे टिप्पणियाँ सभी दिगम्बर श्वेताम्बर न्याय प्रमाण प्रन्थों के वास्ते एक सी कार्य साधक सिद्ध होंगी। इतना ही नहीं ; बल्कि बौद्ध ब्राह्मण-परम्परा के दार्शनिक साहित्य को अनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझाने में भी काम देंगी। उदाहरणार्थ

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