________________ न्यायकुमुरचन्द्र कारण कुछ भी हो पर इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि पिछले भट्टारकों और पंडितों की मनोवृत्ति ही बदल गई और उसका प्रभाव सारी परंपरा पर पड़ा जो अब तक स्पष्ट देखा जाता है और जिसके चिह्न उपलभ्य प्रायः सभी भाण्डारों, वर्तमान पाठशालाओं की अध्ययन अध्यापन प्रणाली और पंडित-मंडली की विचार व कार्यशैली में देखे जाते हैं। अभी तक मेरे देखने सुनने में ऐसा एक भी पुराना दिगम्बर-भाण्डार या आधुनिक पुस्तकालय नहीं आया जिसमें बौद्ध, ब्राह्मण और श्वेताम्बर परम्परा का समग्र साहित्य या अधिक महत्त्व का मुख्य साहित्य संगृहीत हो। मैंने दिगम्बर परम्परा की एक भी ऐसी संस्था नहीं देखी या सुनो कि जिसमें समग्र दर्शनों का आमूल अध्ययन चिंतन होता हो। या उसके प्रकाशित किये हुए बहुमूल्य प्राचीन ग्रन्थों का संस्करण या अनुवाद ऐसा कोई नहीं देखा जिसमें यह विदित हो कि उसके सम्पादकों या अनुवादकों ने उतनी विशालता व तटस्थता से उन मूल ग्रन्थों के लेखकों की भाँति नहीं तो उनके शतांश या सहस्रांश भी श्रम किया हो। ___ एक तरफ से परम्परा में पाई जानेवाली उदात्त शास्त्रभक्ति, आर्थिक सहूलियत और बुद्धिशाली पंडितों की बड़ी तादाद के साथ जब आधुनिक युग के सुभीते का विचार करता हूँ, तथा दूसरी भारतवर्षीय परंपराओं की साहित्यिक उपासना को देखता हूँ और दूसरी तरफ दिगम्बरीय साहित्य क्षेत्र का विचार करता हूँ तब कम से कम मुझको तो कोई संदेह ही नहीं रहता कि यह सब कुछ बदली हुई संकुचित या एकदेशीय मनोवृत्ति का ही परिणाम है। मेरा यह भी चिरकाल से मनोरथ रहा है कि हो सके उतनी त्वरा से दिगम्बर परम्परा की यह मनोवृत्ति बदल जानी चाहिए। इसके विना वह न तो अपना ऐतिहासिक व साहित्यिक पुराना अनुपम स्थान संभाल सकेगी और न वर्तमान युग में सबके साथ बराबरी का स्थान पा सकेगी। यह भी मेरा विश्वास है कि अगर यह मनोवृत्ति बदल जाय तो उस मध्यकालीन थोड़े, पर असाधारण महत्व के, ऐसे ग्रन्थ उसे विरासत लभ्य है जिनके बल पर और जिनकी भूमिका के ऊपर उत्तरकालीन और वर्तमान युगीन सारा मानसिक विकास इस वक्त भी बड़ी खूबी से समन्वित व संगृहीत किया जा सकता है। - इसी विश्वास ने मुझ को दिगम्बरीय साहित्य के उपादेय उत्कर्ष के वास्ते कर्तव्य रूप से मुख्यतया तीन बातों की ओर विचार करने को बाधित किया है। . (1) समंतभद्र, अकलंक, विद्यानंद आदि के प्रन्थ इस ढंग से प्रकाशित किये जायें जिससे उन्हें पढ़ने वाले व्यापक दृष्टि पा सकें और जिनका अवलोकन तथा संग्रह दूसरी परम्परा के विद्वानों के वास्ते अनिवार्यसा हो जाय / (2) आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, अष्टशती, न्यायविनिश्चय आदि ग्रन्थों के अनुवाद ऐसी मौलिकता के साथ तुलनात्मक व ऐतिहासिक पद्धति से किये जायें, जिससे यह विदित हो कि उन ग्रन्थकारों ने अपने समय तक की कितनी विद्याओं का परिशीलन किया था और किन किन उपादानों के आधारपर उन्होंने अपनी कृतियाँ रची थी तथा उनकी कृतियों में सन्निविष्ट विचार-परंपराओं का आज तक कितना और किस तरह विकास हुआ है। (3) उक्त दोनों बातों की पूर्ति का एक मात्र साधन जो सर्वसंग्राही पुस्तकालयों का निर्माण, प्राचीन भाण्डारों को पूर्ण व व्यवस्थित खोज तथा आधुनिक पठन प्रणाली में आमूल परिवर्तन है, वह जल्दी से जल्दी करना।