________________ न्यायकुमुदचन्द्र उनका नाम म होना मुझे खटकता है। फिर भी उनकी इच्छा का समादर करके हमने उनके इस पृथक-नामकरण के प्रस्ताव को मान लिया है। पं० जी ने प्रेसकापी-आदि-प्रूफ-अन्त सभी कार्यो में हमें बड़े परिश्रम से सहायता पहुंचाई है, तथा प्रस्तावना की जिम्मेवारी उठाकर तो उन्होंने हमारा बोझ बहुत कुछ हलका कर दिया है। ऐसे विशिष्ट सहयोगी के मिलने से हम इस भाग में 5 साल जैसा लंबा समय धैर्य के साथ लगा सके हैं। विद्यामूर्ति पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी का हमारा संपादनक्रम देखकर चिरसंचित सहज विद्यानुराग उमड़ पड़ा। उन्होंने हमें बहुत प्रोत्साहन दिया। तथा हमारी प्रार्थना से अपना बहुमूल्य दार्शनिक ग्रन्थसंग्रह स्याद्वाद विद्यालय की लाइब्रेरी को भेंट किया। इतना ही नहीं, अपना सर्वस्व 4300) रु० भी पुस्तकालय के ध्रौव्यकोश में इस लिए प्रदान किये कि-इसके व्याज से प्राचीन संस्कृत-प्राकृत-पाली आदि भाषाओं के दार्शनिक ग्रन्थ ही मँगाए जॉय / आप के इस विद्यानुरागमूलक औदार्य से हमें सम्पादनोपयोगी दार्शनिकग्रन्थ अनायास ही मिल सके। ऐसे उद्वेल विद्यारस के दर्शन दूसरी जगह कठिनता से ही होते हैं। पं० सुखलालजी के शब्दों में 'वृद्धयुवक ' श्री पं० नाथूराम जी प्रेमी ने, जो इस ग्रन्थमाला के मन्त्री हैं, हमें पूरे उत्साह तथा आर्थिक औदार्य के साथ साधन जुटाने में कोई कमी नहीं की। ग्रन्थमाला के द्वितीय मंत्री प्रो० हीरालाल जो तथा कोषाध्यक्ष सेठ ठाकुरदास-भगवान्दास जी जवेरी ने भी बड़े सौजन्य से हमारे कार्य में आवश्यक सहायता पहुँचाई। ____ बौद्धविद्वान् भिक्षु राहुलसांकृत्यायन जी ने बड़ी कठिनता एवं साहस से तिब्वत से प्राप्त प्रमाणवार्तिक, वादन्याय, वार्त्तिकालंकार आदि दुर्लभ प्रन्थों के प्रूफ देकर असाधारण सहायता पहुँचाई। पं० जुगुलकिशोर जो मुख्तार सरसावा ने संपादन के लिए उद्धृत न्यायविनिश्चय की कारिकाओं का मिलान कराया। भाण्डारकर-प्राच्यविद्यासंशोधन-मंदिर पूना के प्रबन्धकों ने अपने यहाँ की ताड़पत्र की प्रति से पाठान्तर लेने में सुविधा की। भट्टारक श्री चारुकत्ति पडिताचाय श्रवणबेलगोला ने अपने यहा का ताड़पत्र वाली प्रति भेजी। मास्टर मोतीलाल जी संघी तथा कविरत्न पं० चैनसुखदास जी सा० जयपुर ने न्यायकुमुदचन्द्र तथा स्वविवृति की प्रति भेजी। भाई पं० दलसुखजी न्या० ती० ने छपाई-आदि के बाबत उचित परामर्श दिया। प्रिय भाई खुशालचन्द्र जी बी० ए०, शास्त्री ने कुछ प्रफ देखने में सहायता पहुँचाई / हम उक्त सभी सहायक महानुभावों का आभार मानते हैं। ... - ग्रन्थ-सम्पादन-काल में सदाशय प्रेमी जी का यह सदुपालम्भ कि-'यथेष्ट पारिश्रमिक देने पर भी जैनपंडित जिम्मेदारी से कार्य नहीं करते' हमेशा ध्यान में रहता था। इसी के कारणहमने उपलब्ध सामग्री के अनुसार यह प्रारम्भिक लघुप्रयत्न किया है। यदि इससे प्रेमी जी थोड़ी भी सन्तोष की सांस ले सके तो हम अपने प्रयत्न को कुछ सफल समझेंगे। इस भाग की छपाई टिप्पणी संकलन आदि में काफी सावधानी से कार्य किया है, पर मनुष्य की शक्ति तथा सामग्री का विचार करके स्खलन होना संभव है / आशा है पाठकगण इसे सद्भाव से देखेंगे। एक दुःखदमसंग-मैंने संपादन काल में जात अपने ज्येष्ठपुत्र का नाम संपादन की स्मृतिनिमित्त 'कुमुदचन्द्र' रखा था। काल की गति विचित्र है। अब तो यह सम्पादित-प्रन्थ ही उसका पुण्यस्मारक हो गया है / मैं तो इसे अपने साहित्य-यज्ञ की आहुति ही मानता हूँ। वीरशासन-दिवस, श्रावण कृष्ण १,वीर सं० 2464 सम्पादकस्याद्वाद विद्यालय, काशी.. -महेन्द्रकुमार