Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ नींव का पत्थर स्वसंचालित है। तब हम इस कर्तृत्व के भार से निर्धार हो सकेंगे। ऐसी जानकारी और श्रद्धा के बिना जीव पर के कर्तृत्व के भार से निर्भार नहीं हो सकते और निर्भार हुए बिना जीवों का उपयोग अन्तर्मुखी नहीं हो सकता तथा अन्तर्मुखी हुए बिना आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द और निराकुल सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः सर्वप्रथम 'वस्तु स्वातंत्र्य' के इस नैसर्गिक नियम को जानना और उस पर विश्वास करना बहुत जरूरी है, जिसका ज्ञान व श्रद्धान अभी तक जीवराज को नहीं हुआ। इसकारण अब तक वह सात्विक जीवन जीते हुए भी सच्चे सुख से वंचित ही रहा। जीवन के उत्तरार्द्ध में भली होनहार से जब वह वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धांत की श्रद्धा के माध्यम से परकर्तृत्व के भार से निर्भार होकर अन्तर्मुखी हुआ और आत्मानुभूति के साथ सच्चे निराकुल सुख का स्वाद लेकर तृप्त हुआ तो उसके मन में बड़ी तेजी से यह विकल्प उठा कि "मेरे बेटा-बेटी इस सुख से वंचित न रह जाँय । मैं उन्हें भी यह सब बता दूं" परन्तु तब तक उसकी शारीरिक स्थिति बे-काबू हो गई। उसे अनायास लकवा लग गया। चाहते हुए भी वह अपनी संतान को उस अनुपम निधि की विधि नहीं बता पाया । इसलिए तो किसी ने कहा है - 'काल करन्ता आज कर, आज करन्ता अब । पल में परलय होयगा, बहुरि करेगा कब ।।' यद्यपि जीवराज लकवा की स्थिति में बोल नहीं सकता, लिख भी नहीं सकता था; परन्तु उसकी समझ यथावत थी, समझ में कोई अन्तर नहीं आया था, सोचने की शक्ति भी पूर्ववत थी, इस कारण जीवन के उत्तरार्द्ध में बीमारी के पूर्व उसे जो वस्तुस्वातंत्र्य का महामंत्र मिल गया था, उसके चिन्तन एवं अनुशीलन की आँच से उसने अपने जीवनभर के सम्पूर्ण कर्तृत्व के अहंकार को पिघला दिया। आधि-व्याधि एवं उपाधि का त्यागकर समाधि की साधना करते हुए अपना जीवन सार्थक करने में अग्रसर हो गया। धन्य है वह नारी जब तक लकवे की गंभीर स्थिति में जीवराज नेत्र बंद करके समाधिस्थ होकर आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करता रहा, वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त के सहारे राग-द्वेष से ऊपर उठने का उग्र पुरुषार्थ करता रहा, एवं स्वरूप का समण करते-करते वह कभी-कभी अर्द्ध मूर्छा को भी प्राप्त होता रहा, तबतक समतारानी उनके जीवन से निराश होकर आंसुओं को पीते हुए अपने धैर्य का परिचय देती रही। उसने अपने मुख मण्डल पर उदासी की एक रेखा भी नहीं आने दी। यद्यपि वह जीवराज के चिरवियोग की कल्पना मात्र से अन्दर से पूरी तरह टूट चुकी थी; किन्तु वह जीवराज के जीवन को समाधि की साधना में सफल करना चाहती थी। अतः वह उसकी मरणासन्न विषम परिस्थिति में भी अपनी मनःस्थिति पर दृढ़ता से काबू किए रही और जोर-जोर से संसार-शरीर और भोगों से वैराग्योत्पादक भावनायें स्वयं भाती रही और पतिदेव को सुनाती रही। संयोग क्षणभंगुर सभी पर आत्माध्रुवधाम है। पर्याय लयधर्मा, परन्तु द्रव्य शाश्वत धाम है।। इस सत्य को पहचानना ही धर्म का आधार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।। निज आत्मा निश्चय शरण व्यवहार से परमात्मा । जो खोजता पर की शरण वह आत्मा बहिरात्मा ।। ध्रुवधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ।। (9)

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