Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ १०४ नींव का पत्थर किसी का कार्य नहीं है तथा वह किसी को उत्पन्न नहीं करता, इस अपेक्षा वह किसी का कारण भी नहीं है। अतः दो द्रव्यों में मात्र निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। आत्मा जब तक कर्मप्रकृतियों के निमित्त से होने वाले विभिन्न पर्यायरूप उत्पाद-व्यय का परित्याग नहीं करता, उनके कर्तृत्व-भोक्तृत्व की मान्यता को नहीं छोड़ता; तबतक वह अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि एवं असंयमी रहता है। तथा जब वह अनंत कर्म व कर्मफल के कर्तृत्व-भोक्तृत्व के अहंकारादि एवं असंयमादि दोषों से निवृत्त होकर स्वरूपसन्मुख हो जाता है, तब वह तत्त्व ज्ञानी सम्यक्दृष्टि एवं संयमी होता है। इसप्रकार विराग ने अनेक युक्तियों और आगम के प्रमाणों के आधार पर वस्तुस्वातंत्र्य के संदर्भ में - 'दो द्रव्यों में कर्ता-कर्म सम्बन्ध' होता ही नहीं है, मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। यह भलीभाँति समझाया, जिसे सुनकर श्रोता बहुत प्रभावित तो हुए ही, लाभान्वित भी हुए। उन्होंने अभी तक ऐसे वीतरागतावर्द्धक और साम्यभावोत्पादक गंभीर व्याख्यान सुने ही नहीं थे। वे अबतक मात्र भगवान महावीर स्वामी की जीवनी और उनके अहिंसा-सिद्धान्त के नाम पर बहुत स्थूल चर्चा ही सुनते आये थे। अतः नवीन विषय सुनकर सभी श्रोता प्रसन्न थे। ___ आभार प्रदर्शन करते हुए संचालिका ज्योत्स्ना ने भविष्य में भी इसी तरह के लाभ की आशा और अपेक्षा की भावना व्यक्त की। अन्त में भगवान महावीर स्वामी की जयध्वनिपूर्वक सभा विसर्जित हुई। क्या मुक्ति का मार्ग इतना सहज है? 'नाच न जाने आँगन टेड़ा' मुहावरे के मुताबिक - सामान्यजनों द्वारा अपनी भूल को स्वीकार न करके - अपने दोषों को दूसरों पर आरोपित करने की पुरानी परम्परा रही है। इसी परम्परा के अन्तर्गत जीवराज की भटकन को मोहनी के माथे मड़ा जाता रहा, जबकि जीवराज के जीवन में हुए उतार-चढ़ाव में मोहनी का कोई अपराध नहीं था; क्योंकि वह तो निमित्त मात्र थी। और परद्रव्य रूप निमित्तों को तो आगम में अकिंचित्कर कहा है; क्योंकि दो द्रव्यों के बीच अत्यन्ताभाव की बज्र की दीवाल खड़ी रहती है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला-बुरा कुछ भी नहीं करता, फिर भी मोहनी पर जो दोषारोपण किया गया, वह सर्वथा निराधार भी नहीं था; क्योंकि वह जीवराज के अपराध में सहचारी तो बनी ही थी। लोक में दोषारोपण करने के लिए सहचारी होना ही पर्याप्त कारण होता है। इस कारण लौकिक जनों द्वारा मोहनी पर कलंक का टीका लगना था सो लगता रहा। इन मिथ्या आरोपों से त्रसित होकर कर्मकिशोर के सम्पूर्ण परिवार के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए ज्ञानियों ने कहा है कि - "कर्म विचारे कौन भूल तेरी अधिकाई। अग्नि सहे धन घात, लोह की संगति पाई।। जिस तरह लोहे का साथ देने मात्र से निर्दोष अग्नि को घन की चोटें सहनी पड़ती हैं, इसीप्रकार हे अज्ञानी! भूल तो तेरी है, तू अज्ञान के कारण परद्रव्यों से राग-द्वेष करके कर्मों को आमंत्रित करता है, कर्मों के आस्रव का कारण बनता है और दोष कर्मों के माथे मढ़ता है। जबकि ये विचारे तो जड़ हैं, इस कारण कुछ जानते ही नहीं हैं। ऐसे निर्दोष कर्मों को अज्ञानी जीव का साथ देने मात्र से गालियाँ खानी पड़ती हैं।" (53)

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