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परिशिष्ट वस्तुस्वातंत्र्य एवं उसकी सिद्धि में हेतुभूत विषयों
के कुछ महत्वपूर्ण आगम आधार वस्तुस्वातंत्र्य सम्पूर्ण जैन वांगमय का ही एक (पर्यायवाचक) नाम है; क्योंकि इस सिद्धान्त में ही जैनवांगमय में प्रतिपादित छहों द्रव्य, उनके अनन्तगुण एवं उनके स्वतंत्र परिणमन के हेतुभूत कारण-कार्य, कर्ता-कर्म, उत्पाद-व्ययध्रौव्य, चार अभाव, पाँच समवाय, षट्कारक, सात तत्त्व, नव पदार्थ के रूप में सम्पूर्ण विश्व समाहित है। और यही मुख्यतया सम्पूर्ण वांगमय का वह प्रतिपाद्य विषय है जिससे वीतराग धर्म की उपलब्धि सहज हो जाती है। __वस्तुस्वातंत्र्य किसी दर्शन विशेष की अवधारणा या विचार मात्र नहीं है, बल्कि यह वस्तुस्थिति है, वास्तविक वस्तुगत विश्वव्यवस्था है। यह वस्तु व्यवस्था अनादि निधन, स्वाधीन, स्वतंत्र, स्वावलम्बी एवं स्वयं संचालित है।
उपर्युक्त वस्तुस्वातंत्र्य के यथार्थ निर्णय और सम्यक्श्रद्धा से आध्यात्मिक लाभ यह है कि जो जीव अब तक स्वयं को पर का कर्ता और पर को स्वयं के सुख-दुःख का दाता मानकर राग-द्वेष से मुक्त नहीं हो पा रहे थे तथा इस कर्तत्व के भार से निर्भार होकर अन्तर्मुख नहीं हो पा रहे थे, वे इस सिद्धान्त की यथार्थ समझ से कर्तृत्व के भार से मुक्त होकर आत्मा का ध्यान कर अल्पकाल में ही स्वयं परमात्म पद प्राप्त कर सकते हैं। आगम इसका साक्षी है। वस्तु स्वातंत्र्य के साधक कारणों के कतिपय आगम उल्लेख इसप्रकार हैं -
वस्तु स्वातंत्र्य सिद्धान्त आगम के आलोक में :- 'वस्तुस्वातंत्र्य' सिद्धान्त के संदर्भ में पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध गाथा १४३ में वस्तु' शब्द के पर्यायवाची नामों में वस्तु, सत्ता, द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, अर्थ, सामान्य, अन्वयी, धर्मी आदि को एक ही अर्थ का वाचक कहा है। ___सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में सत् को अस्तित्व का सूचक कहा है तथा नियमसार गाथा ३४ की तात्पर्यवृत्ति टीका में अस्तित्व को सत्ता कहा है और पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध गाथा ८ में 'सत्तालक्षण युक्त वस्तु को अनेक विशेषताओं से युक्त माना है जो वस्तु के स्वतंत्र स्वरूप का बोध कराता है।
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