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नींव का पत्थर
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तो धर्म है ही नहीं। पर से तो मात्र हटना है और स्व में मात्र डटना है, मात्र इतना सा काम करना है। 'पर से खस, स्व में बस, आयेगा अतीन्द्रिय आनन्द का रस, इतना कर तो बस' अर्थात् धर्म प्राप्त करने के लिए इतना सा काम करना ही पर्याप्त है।
आज तक यह नहीं जाना था, इस कारण यह सब झमेला था। खैर! जो होना था, वही हुआ, इसका भी क्या विकल्प करना ।
कर्म किशोर ने अन्तिम प्रश्न का स्मरण करते हुए जीवराज से कहा“अभी तक तो सब बातों-बातों में हुआ। अब तुम यह बताओ कि तुम इन सुनहरे स्वप्नों को साकार कैसे करोगे? मुक्ति का महल बनाने के लिए तुम्हारे पास ठोस आधार क्या है ? तुम्हारी भावी योजना क्या है? और मैं तुम्हारे किस काम आ सकता हूँ? मैं तुम्हारे विचारों से प्रसन्न हूँ, सहमत भी हूँ तथा मैं तुम्हारे इस काम में सहयोग भी करना चाहता हूँ? तुम मुझे मात्र अपना शत्रु ही मत समझो। मैं मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करने में सहयोगी की भूमिका भी निभाता रहा हूँ।
भगवान के भक्त तो भगवान के सामने ही मेरे सहयोग की दिल खोलकर प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं -
'अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया' यदि मैं पापियों को दुर्गति में ले जाकर दण्डित करता हूँ तो धर्मात्माओं को आत्मकल्याण निमित्तभूत देव-शास्त्र-गुरु का सान्निध्य भी प्राप्त करता हूँ अतः जहाँ तुम्हें मेरे सहयोग की जरूरत महसूस हो, मैं तुम्हारा सहयोग करने को तत्पर हूँ ।
जीवराज ने कर्मकिशोर के सहयोग करने की भावना का आदर करते हुए अपनी भावी योजनाओं की रूपरेखा बताते हुए कहा - " यद्यपि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, यह मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है; परन्तु सीढ़ी के पूर्व नींव के पत्थर का शिलान्यास करना आवश्यक है, जो कि 'वस्तुस्वातंत्र्य' का सिद्धान्त है। नींव के पत्थर की पहचान या परिचय के
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क्या मुक्ति का मार्ग इतना सहज है ?
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लिए सर्वप्रथम वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अनेकान्तमयी धर्म की यथार्थ श्रद्धा आवश्यक है। इनकी यथार्थ श्रद्धा के लिए पहले देव-शास्त्रगुरु का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है; क्योंकि इनके जाने बिना श्रद्धान किसका करें । इन्हें जानने के लिए व्यवस्थित बुद्धि होना जरूरी है।
इन सबके लिए दुर्व्यसनों का त्याग अनिवार्य है। अतः सर्वप्रथम हमें बुद्धिपूर्वक सात व्यसनों का त्याग, अष्ट मूलगुणों का धारण, नित्यदेवदर्शन, नियमित स्वाध्याय और अहिंसक आचरण करना आवश्यक है।"
जीवराज ने कहा- “ यद्यपि ये क्रियायें धर्म नहीं है, मुक्ति महल के नींव के पत्थर नहीं हैं। इन सबसे कर्मकिशोर ! तुम्हारा परिवार ही बढ़ेगा - यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ, परन्तु मैं तुम्हारे परिवार की प्रकृति को अब अच्छी तरह पहचानने लगा हूँ। उन सबका काम तो जो / जैसा मैं अपनी स्वयं की योग्यता से करता हूँ अथवा जैसा जीव भला-बुरा अपने हिताहित के काम करता है, उसमें अनुकूल-प्रतिकूल निमित्त बन जाना तेरे परिवार की प्रकृति है । अतः यदि मैं धर्माचरण रूप कार्य करूँगा तो तेरा परिवार मुझे उसमें भी अनुकूल बाह्य संयोग मिलाने में निमित्त बनेगा ।"
यह समझाकर जीवराज ने कर्मकिशोर को अपनी भावी योजना में धर्माचरण को न केवल प्राथमिक आवश्यकता बताया बल्कि धर्माचरण करने की आद्योपान्त रूपरेखा भी बताई। धर्माचरण में सामूहिक स्वाध्याय कर सर्वाधिक समय देने का संकल्प किया; क्योंकि स्वाध्याय के द्वारा ही तो मुक्तिमहल की नींव के पत्थर का शिलान्यास संभव हो सकेगा।
जीवराज ने कर्मकिशोर के अन्तिम प्रश्न वेदनाजनित भय और आर्तध्यान से किस आधार से बचने के इस अन्तिम प्रश्न के उत्तर में कहा "कि जब मुझे शारीरिक रोग के कारण असह्य वेदना होती तब मैं सोचता - 'भगवान आत्मा तो आधि-व्याधि जनित पीड़ा से सर्वथा पृथक ही है। आत्मा राग व रोग दोनों से पृथक ही है। इसकारण वेदना होते हुए भी वेदना जनित भय नहीं था। और शरीर तो व्याधि का ही
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