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नींव का पत्थर
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की सर्व अवस्थाओं में स्वयं मिट्टी व्याप्त होती है। कुम्हार तो उस कलश रूप कार्य का निमित्त (सहचर ) मात्र है।
समयसार कलश ४९ में आचार्य अमृतचंद्र ने इसका अत्यंत सरल व स्पष्ट निरूपण किया है- “व्याप्य व्यापकता तत्स्वरूप में ही होती है अतत्स्वरूप में नहीं होती है और व्याप्य-व्यापक भाव के संभव हुए बिना कर्ता-कर्म की स्थिति कैसी? कलश में प्रयुक्त 'ही' शब्द पर जोर देकर आचार्य अमृतचन्द्र ने इस तथ्य से अवगत कराया है कि एक द्रव्य का अपनी ही पर्याय में व्याप्य व्यापक भाव का सद्भाव है, दो द्रव्यों में नहीं। कलश का भावार्थ पं. जयचंद छाबड़ा ने इस प्रकार किया है- "जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त होता है सो तो व्यापक है और कोई अवस्था विशेष वह व्याप्य है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश २११, प्रवचनसार गाथा १२२ की तत्त्वप्रदीपिका टीका में भी इसी मन्तव्य को विस्तार से व्यक्त किया है।
समयसार गाथा १०२ में भी यही बात कही गई है। वहाँ कहा है कि आत्मा जो शुभ-अशुभभाव करता है वह उसको कर्त्ता होता है। तथा वे शुभ या अशुभ भाव उसके कर्म होते हैं।
इसी संदर्भ में प्रवचनसार गाथा ९ भी अवलोकनीय है।
पंचास्तिकाय गाथा ५७ भी यहाँ उल्लेखनीय है। वहाँ कहा है कि 'कर्म को वेदता हुआ जीव जैसे भाव को करता है वह उस भाव का उस प्रकार से कर्त्ता होता है।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह तो स्पष्ट होता ही है कि परिणामी वस्तु का ही परिणाम होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक द्रव्य अन्य परद्रव्य का कर्त्ता कदापि नहीं होता।
समयसार गाथा ९८, ९९, १०३ एवं ११६ गाथा की टीका भी इस संदर्भ 'दृष्टव्य हैं। अन्त में समयसार कलश २०० में स्पष्ट कह दिया है कि -
में
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्म तत्वयोः । कर्तृकर्मत्व सम्बन्धाभावे तत्कतृता कुतः ।।
अर्थात् परद्रव्य और आत्मतत्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है। अतः कर्ता
कर्म सम्बन्ध का अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ? नहीं हो सकता ।
इसप्रकार विभिन्न द्रव्यों के बीच सर्वप्रकार के सम्बन्धों का निषेध ही वस्तुतः वस्तुओं की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा है।
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परिशिष्ट : महत्वपूर्ण आगम आधार
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वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त की सिद्धि में आगम के आलोक में प्रस्तुत उपर्युक्त कर्त्ता कर्म का सिद्धान्त तो सशक्त साधन है ही। इसके अतिरिक्त निमित्तोपादान के रूप में कारण कार्य की आगमोक्त सिद्धि तथा आगम प्रसिद्ध चार अभाव, पाँच समवाय, षट्कारक आदि अन्य आगमोक्त प्रकरण भी वस्तुस्वातंत्र्य की सिद्धि में प्रबल हेतु हैं, जिनके कतिपय आगम प्रमाण निम्न प्रकार हैं: जिज्ञासु पाठक मूलग्रन्थों का अवलोकन कर सकें एतदर्थ यहाँ मात्र गाथाओं श्लोकों एवं कारिकाओं की नम्बए गये हैं।
• कारण कार्य विषयक आगम आधार :- वस्तु के स्वतंत्र परिणमन
=
में कारण कार्य के रूप में निमित्तोपादान का विषय आगम सम्मत ठोस आधार है । एतदर्थ लेखक की लघु पुस्तिका 'पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं' तथा डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल की पुस्तिका निमित्तोपादान का अध्ययन अपेक्षित है। तथा मूल आगम ग्रन्थ में समयसार कलश ५१ व ५४ दृष्टव्य है ।
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इसी के समर्थन में कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २१९ भी दृष्टव्य है।
• चार अभावों के प्रकरण में आगम आधार :- आचार्य समन्तभद्र
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का देवागम स्तोत्र तो मूल आधार है ही, देवागम स्तोत्र का ही अपर नाम आप्तमीमांसा है। आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलंकदेव ने आठ सौ श्लोक प्रमाण अष्ट शती टीका लिखी तथा आचार्य विद्यानन्द देव ने उस टीका पर आठ हजार श्लोक प्रमाण अष्ट सहस्री वृहद् टीका लिखी है। जिसमें देवांगस्तोत्र की कारिका ९, १०, ११ तथा १५, १७, १८ के आधार पर चार अभावों का सयुक्ति विस्तृत विवेचन किया है। उससे वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त को सर्वाधिक बल प्राप्त हुआ है।
इसके अतिरिक्त इन्हीं के युक्तानुशासन ग्रन्थ की कारिका ५९ एवं आचार्य अकलंकदेव के राजवार्तिक अध्याय २ सूत्र ८ में इसका पुरजोर समर्थन है।
• क्रमबद्धपर्याय के प्रतिपादन में तथा आचार्य प्रभाकर के प्रमेय कमलमार्तण्ड में स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ३२१, ३२२ एवं ३२३ गाथायें, समयसार गाथा ३०८ से ३११ की आत्मख्याति टीका तथा आ. रविषेण के पद्मपुराण के सर्ग ११० का श्लोक ४० समर्पित है। सर्वज्ञता तो मूल आधार है ही । सर्वज्ञता के संदर्भ में आगम आधार देखें प्रवचनसार गाथा ३९, तत्वार्थसूत्र अ. १ सूत्र २९, सर्वार्थसिद्धि अ. १, सूत्र २९ की टीका ।