________________
१२०
नींव का पत्थर
इसी ग्रन्थ में तत्काल बाद गाथा ९ से १४ में यह कहा है कि 'वह सत्ता विनाश रहित अनादि है, अनिधन है, स्व-सहाय है और निर्विकल्प है। इसप्रकार सत्ता या द्रव्य उक्त लक्षणों से युक्त होने से पूर्णतया स्वतंत्र्य व स्व-सहाय है। तथा ये छहों द्रव्य एक साथ आकाशद्रव्य के लोकाकाश में अपने-अपने स्वचतुष्ट्य के साथ रहते हुए स्वतंत्र रूप से अपना-अपना कार्य करते रहते हैं।
कर्ता-कर्म:-समयसार परमागम का कर्ता-कर्म अधिकार और सर्वविशुद्ध अधिकार में समस्त पर-कर्तृत्व का निषेध एवं स्व-कर्तृत्व का ही समर्थन हैं।
प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का स्वयं कर्ता है। उसके परिणमन में पर का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है। स्वयं का कर्तृत्व होने पर भी अपने कर्तृत्व का भार बिल्कुल नहीं है; क्योंकि वह परिणमन भी सहज है।
कर्ता का अर्थ :- व्याकरण शास्त्र में कर्ता का तात्पर्य है 'कार्य का जनक' है, पाणिनि व्याकरण में स्वतंत्रः कर्ता' और कातंत्र व्याकरण सूत्र ३८० में 'यः करोति स कर्ता' अर्थात् जो स्वतंत्रतापूर्वक कार्य को करे या जो क्रिया का जनक हो, वह कर्ता है।
•समयसार कलश ५१ में अमृतचंद ने कर्त्ता का स्वरूप इस प्रकार लिखा है कि - 'यः परिणमति स कर्ता' अर्थात् जो स्वयं कार्यरूप परिणमित हो वह कर्ता है।
• प्रवचनसार गाथा १८४ की तत्त्व प्रदीपिका टीका में इस प्रकार कहा है कि - 'स्वतंत्रः कुर्वाणस्तस्य कर्ता अवश्यं स्यात्' अर्थात् वह उसको (कार्य को) स्वतंत्रतापूर्वक करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है। जैसे - मिट्टी घट की कर्ता है और घट उसका कर्म है; क्योंकि मिट्टी स्वतंत्रतया घटरूप परिणमन करती है।
कर्म का अर्थ :- कातत्र व्याकरण सूत्र ३८१ में कर्म का अर्थ इस प्रकार परिभाषित किया है कि - 'यत्क्रियते तत्कर्म' अर्थात् कर्ता के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है।
.राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र १ के अनुसार - 'कर्तु क्रियया आप्नुमिष्टतमं कर्म' कर्ता की क्रिया के द्वारा जो प्राप्त करने योग्य इष्ट होता है उसे कर्म कहते हैं।
.भगवती आराधना की भाग १ गाथा २० की विजयोदया टीका पृष्ठ ४२ में लिखा है कि - 'कर्तु क्रियाया व्यापत्वेन विवक्षितमपि कर्म' अर्थात् कर्ता की होनेवाली क्रिया के द्वारा जो व्याप्त होता है, वह कर्म कहलाता है।
•समयसार कलश ५१ एवं प्रवचनसार गाथा ११७ की तत्त्वदीपिका की
परिशिष्ट : महत्वपूर्ण आगम आधार टीका में भी यह लिखा है कि 'यः परिणामो भवेत तत्कर्म' तथा 'क्रियाखल्वात्मना प्राप्यत्वकर्म' अर्थात् परिणमन होनेवाले कर्त्तारूप द्रव्य का जो परिणाम है, वह उसका कर्म है तथा क्रिया वास्तव में कर्ता के द्वारा प्राप्त होने से हैं।
यहाँ ज्ञातव्य है कि - वैसे कर्म शब्द के अनेक अर्थ होते हैं - जैसे कि - 'घटं करोति' में घट शब्द कर्म कारक के अर्थ हैं। 'कुशलाकुशलं कर्म' में कर्म शब्द पुण्य-पाप के अर्थ में आता है; किन्तु यहाँ कर्म शब्द कर्ता की क्रिया, कार्य, परिणति, परिणमन अथवा परिणाम के अर्थ में लिया गया है।
कर्म के भेद - जैनदर्शन में सामान्यतया कर्ता का कर्म तीन प्रकार का माना गया है। उक्तं च - "तत्रिविधं निर्वत्यं विकार्यं प्राप्यं चेति।"
(अ) प्राप्य कर्म - कर्ता जिसे प्राप्त करता है वह प्राप्यकर्म है अर्थात् कर्ता जो नया उत्पन्न नहीं करता तथा विकार करके भी प्राप्त नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है (अर्थात् स्वयं उसकी पर्याय) वह कर्ता का प्राप्य कर्म है। जैसे - स्वर्ण अंगूठी को प्राप्त करता है। यहाँ अंगूठी स्वर्ण का प्राप्य कर्म है।
(ब) विकार्य कर्म - कर्ता के द्वारा पदार्थ में विकार (परिवर्तन) करके जो कुछ किया जावे वह कर्ता का विकार्य कर्म है। जैसे - अंगूठी स्वर्ण का विकार्य कर्म है। यहाँ स्वर्ण ही अंगूठी रूप विशेष रूप से परिवर्तित हुआ है।
(स) निर्वर्त्य कर्म - कर्ता के द्वारा जो पहले से न हो ऐसा कुछ नवीन उत्पन्न किया जाये वह कर्ता का निर्वर्त्य कर्म है। जैसे - स्वर्ण से नवीन अंगूठी बनीं। यहाँ स्वर्ण ही अंगूठी रूप निर्वर्त्य कर्म हुआ। ___ इस प्रकार कर्ता व कर्म के स्वरूप से स्पष्ट होता है कि कर्त्ता स्वतंत्र रूप से जिस कार्य को करे उसका वह कर्ता है और कर्ता को जो इष्ट हो वह उसका कर्म है।
कर्ता-कर्म सम्बन्ध के विषय आचार्य अमृतचन्द ने समयसार गाथा ७६ में आत्मख्याति टीका में कर्ता-कर्म सिद्धान्त की व्याख्या व्याप्य-व्यापक संबंध के द्वारा की गई है और यह स्वीकृत किया गया है कि वस्तुतः कर्ता-कर्म संबंध वहीं होता है, जहाँ व्याप्य-व्यापक भाव अथवा उपादान-उपादेय भाव होता है। जो वस्तु कार्य रूप परिणमित होती है वह व्यापक है, उपादान है तथा जो कार्य होता है वह व्याप्य है, उपादेय है। उदाहरणार्थ :- मिट्टी की कलश रूप पर्याय व्याप्य है तथा उस पर्याय में मिट्टी व्यापक है, कुम्हार नहीं। अतः कलश (पर्याय) कर्म तथा मिट्टी (द्रव्य) उसकी कर्ता है, कुम्हार उसका कर्ता नहीं है, क्योंकि मिट्टी
(61)