Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ ११६ नींव का पत्थर मन्दिर है, रोगों का ही घर है। इसके एक-एक रोम में ९६ - ९६ रोग हैं। इस कारण रोगों से बचने का तो एकमात्र उपाय देहातीत होना है। जब तक संसार में जन्म-मरण है तब तक कोई भी इन व्याधियों से नहीं बच सकता । राजा श्रीपाल और चक्रवर्ती सनतकुमार जैसे पुण्य पुरुष कोड़ से पीड़ित रहे तद्भव मोक्षगामी उपसर्गजयी मुनि पुंगव सुकमाल, सुकौशल का आत्म साधना की दशा में सियाल और शेरनी ने खाया। उन सब पुण्य पुरुषों की अपेक्षा हमें क्या दुःख है ? कुछ भी नहीं । यही सब सोचकर समता रखता था । यह भी विचार आता था कि यह तो क्षणिक पर्याय है, एक क्षण में पलटेगी और पीड़ा कम हो जायेगी। इस आशा में वह पीड़ा सह लेता था। अधिकांश तो उस पीड़ा पर से उपयोग हटाने हेतु देहातीत भगवान की भक्ति के गीत गुनगुनाता रहता, स्तोत्र स्तुतियाँ पढ़ा करता । सिद्ध भगवन्तों की पूजा-पाठ किया करता । यद्यपि वेदना से बचने का सबसे सशक्त साधन स्वाध्याय है, परन्तु वह समता के द्वारा संचालित सामूहिक स्वाध्याय में तो सम्मलित नहीं हो पाता; फिर भी उनके कैसिट सुनकर साम्य भाव से समय का सदुपयोग करता । बस इसी तरह धीरे-धीरे रोग क्षय होता गया, साथ ही राग भी क्षीण होता रहा और अब ऐसा महशूस करने लगा कि - "मैं पूर्ण तन्दुरुस्त और श्रद्धा से पूर्ण स्वस्थ हूँ ।" चारित्रगुण में विशुद्धि की कमी के कारण अभी मुनिश्री सुकुमाल और मुनिश्री सुकौशल की श्रेणी में नहीं आ पा रहा हूँ; परन्तु भावना यही है कि - कब धन्य सुअवसर पाऊँ जब निज में ही रम जाऊँ तथा प्रतीक्षा है कि - 'वह धन्य घड़ी कब आयेंगी, जब मैं मुनिराज न वन में विचरूँगा । (59) ११७ क्या मुक्ति का मार्ग इतना सहज है ? जीवराज के इस प्रकार उत्तम विचारों से कर्मकिशोर न केवल प्रभावित हुआ, उसकी आँखें आसुओं में भीग गई। उसने धन्यवाद देते हुए आंसुओं की बूँदों से उसके चरणों का प्रक्षाल किया और श्रद्धाभक्ति से नमन कर जीवराज को आश्वस्त किया कि जब तक आप इस संसार में है, हमारी पुण्य की पार्टी आपकी सेवा में सदा समर्पित हैं, आप हमें सेवा का अवसर प्रदान करते रहें । हमारी पार्टी आपके अनुकूल सुखद संयोग मिलाते ही रहेगी। इसप्रकार जीवराज और कर्मकिशोर के सुखद-संवाद के साथ बात पूरी हुईं। अधिकांश धर्मप्रेमी इतना तो अनेक बार कर चुके; फिर भी अब तक उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ा; क्योंकि उनकी भूल यह होती है कि वे इस प्राथमिक पृष्ठभूमि को ही धर्म की क्रिया मानकर संतुष्ट हो जाते हैं। उदाहरणार्थ जैसे कोई कृषक खेत को जोतें, उसकी घास उखाड़े, खाद-पानी डालें, चारों ओर बाढ़ लगाये। इसतरह खेत को बीज बोने योग्य बनाकर भी उसमें बीज डालना भूल जाये तो क्या उसे समय पर फसल (अनाज) की प्राप्ति होगी? ठीक उसी प्रकार जीव प्राथमिक सभी धर्माचरण करे और स्वाध्याय से प्राप्त होने योग्य वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त को न समझे। नींव के पत्थर का शिलान्यास ही न करे तो मुक्ति का महल किसके आधार पर खड़ा करेगा? वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त एवं उसके पोषक कारण-कार्य के चार अभाव, पाँच समवाय, षट्कारक आदि ही तो वे आधार शिलायें हैं, जिसपर मोक्षमहल का निर्माण होता है। अतः इन सबको जानकर श्रद्धान करना एवं तदनुकूल धर्माचरण करना ही तो धर्म का मूल है। इनकी यथार्थ प्रतीति से उपयोग की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी होने लगेगी, फिर हम समस्त कर्तृत्व के भार से निर्भर हो जायेंगे ।

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