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नींव का पत्थर
आज संभवतः यह दुनिया ही इस रूप में न होती, सभी कुछ नष्टभ्रष्ट हो गया होता; क्योंकि दुनिया तो राग-द्वेष का ही दूसरा नाम है, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसका कोई शत्रु न हो; पर आज जगत यथावत् चल रहा है। इससे स्पष्ट है कि कोई किसी के भले-बुरे, जीवन-मरण व सुख-दुःख का कर्ता हर्ता नहीं है। जो होना होता है वही होता है, किसी के करने से नहीं होता ।
लोक में सभी कार्य स्वतः अपने-अपने षट्कारकों से ही सम्पन्न होते हैं। उनका कर्ता-धर्ता मैं नहीं हूँ। ऐसी श्रद्धा से ज्ञानी पर के कर्तृत्व के भार से निर्भर होकर अपने ज्ञायकस्वभाव का आश्रय लेता है। यही आत्मानुभूति का सहज उपाय है।
प्रत्येक द्रव्य व उनकी विभिन्न पर्यायों के परिणमन में उनके अपनेअपने कर्ता, कर्म, करण आदि स्वतंत्र षट्कारक हैं, जो उनके कार्य के नियामक कारण हैं। ऐसी श्रद्धा का बल बढ़ने से ही ज्ञानी ज्यों-ज्यों इन बहिरंग (पर) षट्कारकों की प्रक्रिया से पार होता है, त्यों-त्यों उसकी आत्मशुद्धि में वृद्धि हो जाती है।"
जब कार्य होना होता है, तब कार्य के नियामक अंतरंग षट्कारक, पुरुषार्थ, काललब्धि एवं निमित्तादि पाँचों समवाय स्वतः मिलते ही हैं। और नहीं होना होता है तो अनंत प्रयत्नों के बावजूद भी कार्य नहीं होता तथा तदनुरूप कारण भी नहीं मिलते।
मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव से अकर्तावाद सिद्धान्त की ऐसी श्रद्धा हो जाती है कि जिससे उसके असीम कष्ट सीमित रह जाते हैं। जो विकार शेष बचता है, उसकी उम्र भी लम्बी नहीं होती।
बस, इसलिए तो आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में जीवाजीवाधिकार के तुरन्त बाद ही यह कर्ताकर्म अधिकार लिखने का महत्वपूर्ण निर्णय
१. समयसार, गाथा ७३ की आत्मख्याति टीका
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राग-द्वेष की जड़ : पर कर्तृत्व की मान्यता
लिया है। इसमें बताया गया है- जगत का प्रत्येक पदार्थ पूर्णतः स्वतंत्र है, उसमें होनेवाले नित्य नये परिवर्तन या परिणमन का कर्ता वह पदार्थ स्वयं है। कोई भी अन्य पदार्थ या द्रव्य किसी अन्य पदार्थ या द्रव्य का कर्ता हर्ता नहीं है।
समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार का मूल प्रतिपाद्य ही यह है कि परपदार्थ के कर्तृत्व की तो बात ही क्या कहें, अपने क्रोधादि भावों का कर्तृत्व भी ज्ञानियों के नहीं है। जबतक यह जीव ऐसा मानता है कि क्रोधादि का कर्ता व क्रोधादि भाव मेरे कर्म हैं, तब तक वह अज्ञानी है। तथा जब स्व-संवेदन ज्ञान द्वारा क्रोधादि आस्रवों से शुद्धात्म-स्वरूप को भिन्न जान लेता है, तब ज्ञानी होता है।
यद्यपि जीव व अजीव दोनों द्रव्य हैं, तथापि जीव के परिणामों के निमित्त से पुद्गल कर्मवर्गणाएँ स्वतः अपनी तत्समय की योग्यता से रागादि परिणामरूप परिणमित होती है। इसप्रकार जीव के व कर्म के कर्ता - कर्म सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि न तो जीव पुद्गलकर्म के किसी गुण का उत्पादक है और न पुद्गल जीव के किसी गुण का उत्पादक है। केवल एक-दूसरे के निमित्त से दोनों का परिणमन अपनी-अपनी योग्यतानुसार होता है। इस कारण जीव सदा अपने भावों का ही कर्ता होता है, अन्य का नहीं।
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यद्यपि आत्मा वस्तुतः केवल स्वयं का ही कर्ता भोक्ता है, द्रव्यकर्मों का नहीं, तथापि द्रव्यकर्मों के उदय के निमित्त से आत्मा को सांसारिक सुख-दुःख का कर्ता भोक्ता कहा जाता है, परन्तु ऐसा कहने का कारण पर का या द्रव्यकर्म का कर्तृत्व नहीं है, बल्कि आत्मा में जो अपनी अनादिकालीन मिथ्या मान्यता या अज्ञानता से राग-द्वेष-मोह कषायादि भावकर्म हो रहे हैं, उनके कारण यह सांसारिक सुख-दुख का कर्ताभोक्ता होता है। वस्तुतः आत्मा किसी से उत्पन्न नहीं हुआ, अतः वह