Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 50
________________ नींव का पत्थर राग-द्वेष की जड़ : पर कर्तृत्व की मान्यता एवं स्तवन के स्वर स्पष्ट सुनाई देने लगे। पास जाकर देखा तो वे महावीराष्टक बोल रहे थे, तीर्थंकर स्तवन कर रहे थे। पिताजी की इस घटना से सिद्ध होता है कि - किसी के करने से कुछ नहीं होता। जगत का सारा परिणमन स्वयं अपने-अपने पाँच समवायों से एवं स्वयं के स्वतंत्र षट्कारकों से होता है। ____ अफसोस यह कि सामान्यजन तो स्वयं को दूसरों के सुख-दुःख का कर्ता और दूसरों को अपने सुख-दुःख का कर्ता मानकर दूसरों पर रागद्वेष करके हर्ष-विषाद करते ही हैं, स्वयं को धर्मात्मा और ज्ञानी मानने वाले भी इस पर के कर्तृत्व की मान्यता में ही उलझे रहकर राग-द्वेष से नहीं उबर पाते । इसका मूल कारण निमित्त-नैमित्तिक संबंधों की घनिष्ठता है। इस कर्ता-कर्म सम्बन्ध की भूल को निकालने के लिए समयसार परमागम का पूरा कर्ता-कर्म अधिकार और सर्वविशुद्ध अधिकार समर्पित है - जिसको आगम और युक्तियों के आधार से परद्रव्य के अकर्तृत्व की सशक्त चर्चा के बाद यदि हम दैनिक जीवन में २४ घंटे घटित होती घटनाओं का भी सूक्ष्म अवलोकन करें तो प्रायोगिक रूप से भी यही सिद्ध होगा कि कोई भी एक द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि विश्व की सम्पूर्णसृष्टि आटोमेटिक स्व-संचालित है।" मुख्य वक्ता के रूप में अपने विषय का प्रतिपादन करते हुए विराग ने अपने व्याख्यान में आगे कहा – “समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार में वस्तुस्वातन्त्र्य या छहों द्रव्यों के स्वतंत्र परिणमन का निरूपण प्रकारान्तर से परद्रव्य के अकर्तृत्व का ही निरूपण है। यह अकर्तावाद का सिद्धान्त आगमसम्मत युक्तियों द्वारा एवं सिद्धान्तशास्त्रों की पारिभाषिक शब्दावलियों द्वारा तो स्थापित है ही, साथ ही अपने व्यावहारिक लौकिक जीवन को निराकुल सुखमय बनाने में भी इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। आगम के दबाव और युक्तियों की मार से सिद्धान्ततः अकर्तृत्व को स्वीकार कर लेने पर भी अपने दैनिक जीवन की छोटी-मोटी पारिवारिक घटनाओं के सन्दर्भ में उन सिद्धान्तों के प्रयोगों द्वारा आत्मिक शान्ति और निष्कषाय भाव रखने की बात जगत के गले आसानी से नहीं उतरती, उसके अन्तर्मन को सहज स्वीकृत नहीं होती; जबकि हमारे धार्मिक सिद्धान्तों की सच्ची प्रयोगशाला तो हमारे जीवन का कार्यक्षेत्र ही है। ___ क्या अकर्तावाद जैसे संजीवनी सिद्धान्त केवल शास्त्रों की शोभा बढ़ाने या बौद्धिक व्यायाम करने के लिए ही हैं? अपने व्यवहारिक जीवन में प्रामाणिकता, नैतिकता, निराकुलता एवं पवित्रता प्राप्त करने में इनकी कुछ भी भूमिका-उपयोगिता नहीं है? यह एक अहं प्रश्न है। जरा सोचो तो सही, अकर्तृत्व के सिद्धान्त के आधार पर जब हमारी श्रद्धा ऐसी हो जाती है कि 'कोई भी जीव किसी अन्य जीव का भला या बुरा कुछ भी नहीं कर सकता', तो फिर हमारे मन में अकारण ही किसी के प्रति राग-द्वेष-मोहभाव क्यों होंगे? यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि - अकर्तृत्व की सच्ची श्रद्धा वाले ज्ञानियों के भी क्रोधादि भाव एवं इष्टानिष्ट की भावना प्रत्यक्ष देखी जाती है तथा उनके मन में दूसरों का भला-बुरा या बिगाड़-सुधार करने की भावना भी देखी जाती है - इसका क्या कारण है? समाधान सरल है, यद्यपि सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा सिद्धों जैसी पूर्ण निर्मल होती है, तथापि वह चारित्रमोह कर्मोदय के निमित्त से एवं स्वयं के पुरुषार्थ की कमी के कारण दूसरों पर कषाय करता हुआ भी देखा जा सकता है; पर सम्यग्दृष्टि उसे अपनी कमजोरी मानता है। उस समय भी उसकी श्रद्धा में तो यही भाव है कि - ‘पर ने मेरा कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं किया है।' अतः उसे उसमें अनन्त राग-द्वेष नहीं होता। उत्पन्न हुई कषाय को यथाशक्ति कृश करने का पुरुषार्थ भी अन्तरात्मा में निरन्तर चालू रहता है। अतः इस अकर्तावाद के सिद्धान्त को धर्म का मूल आधार या धर्म का प्राण भी कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। (50)

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