________________
१०८
नींव का पत्थर
कम होती जा रही है और समता की ओर उसका आकर्षण पुनः बढ़ रहा है तो मैं उदास एवं हताश हो गई। यह तो आप जानते ही हैं कि ' जिसतरह एक म्यान में दो तलवारें नहीं समातीं, उसी तरह मैं और समता जीवराज के हृदय में एक साथ नहीं रह सकते थे। अतः मुझे जीवराज से उपेक्षा ही करनी पड़ी और मैं उससे नाता तोड़कर पुनः अपने पुराने रूप में आ गई।"
यहाँ ज्ञातव्य है कि कर्म की जाति-विरादरी में अनेक पुरुषों से प्रेम संबंध जोड़ना-तोड़ना अपराध नहीं माना जाता। इस कारण मोहनी द्वारा जीवराज की उपेक्षा करने से कर्मकिशोर को अटपटा नहीं लगा।
मोहनी ने अपने भाई कर्मकिशोर से यह भी कहा कि - "तुम्हारी मित्रता भले ही अनादिकाल से है; पर अब शीघ्र ही छूटने वाली हैं; क्योंकि अब जीवराज अपनी पूर्व पत्नी समताश्री, पुत्री ज्योत्स्ना और पुत्र विराग के कहने में आ गया है। उसे हमसे मुक्त होने का मार्ग मिल गया है। अतः क्यों न तुम्ही उसका साथ छोड़ दो।" ___ कर्मकिशोर को बहिन मोहनी की बातें अँच तो गई; परन्तु वह जीवराज से एक बार साक्षात्कार करके उसकी मनःस्थिति स्वयं समझना चाहता था एतदर्थ उसने निम्नोक्त प्रश्न किए।
कर्मकिशोर के प्रश्नों के उत्तर में जीवराज ने कहा - "कर्मकिशोर आप ही क्या? जितने बाह्यदृष्टि देखने वाले हैं, वे सब भी यही कहते हैं कि मोहनी ने जीवराज को मोहित करके अपने मोहजाल में फँसा लिया
और उसकी यह दुर्दशा कर दी और अन्त में मेरी उपेक्षा की, अनादर किया। इतना ही नहीं मुझे घी की मक्खी की भाँति निचोड़ कर फेंक दिया; परन्तु उनका यह कहना और सोचना सर्वथा असत्य है तथा मोहनी ने जो आपसे कहा, वही बात सही है। मोहनी ने मुझे मोहित नहीं किया, बल्कि मैं ही अपने सत्पथ से भटक कर उस पर मोहित हुआ था। उसमें उसकी कतई कोई गल्ती नहीं है। मोहनी का तो स्वभाव ही सम्मोहन में निमित्त बनना है; परन्तु जो अपनी खोटी होनहार से और अपनी तत्समय
क्या मुक्ति का मार्ग इतना सहज है? की उपादान योग्यता से मोहित होता है, मोहनी मात्र उसी के सम्मोहन में निमित्त बनती है। जिसकी भली होनहार है, वह मोहनी के सुन्दर रूप, आकर्षक व्यक्तित्व और लुभावने हाव-भाव को देखकर भी उसकी ओर आकर्षित नहीं होता। यदि मोहनी का वश चलता होता, वह आकर्षित करने की क्षमतावान होती तो अच्छे-अच्छे ऋषिमुनि, व्रती-ब्रह्मचारी भी उससे नहीं बच पाते? सेठ सुदर्शन को रिझाने की क्या मोहनी ने कोई कम कोशिश की थी; परन्तु वे विचलित नहीं हुए सो नहीं हुए। अतः मोहनी को दोष देना मुझे बर्दास्त नहीं है। मेरे भ्रष्ट होने में सन्मार्ग से भटकने में शतप्रतिशत मेरी ही भूल है, मोहनी निमित्त मात्र है। और वह अपने पर्यायगत स्वभाव को भी तो नहीं छोड़ सकती। मेरा उससे यह कोई प्रथम परिचय नहीं है। पहले भी इस पर मोहित होता रहा हूँ। अतः अकेले उस पर दोषारोपण करना बिल्कुल व्यर्थ है।"
कर्मकिशोर ने अगले प्रश्न की भूमिका बनाते हुए कहा - "यह तो आपका कहना सही है कि मोहनी का कोई दोष नहीं है; परन्तु उसकी निमित्तता में जो तुम्हें मानसिक संताप और देहिक दुःख हुआ, उस विकट एवं विषम परिस्थिति में आपकी मनःस्थिति कैसी रही? जब पारिवारिक परेशानियाँ, सामाजिक समस्यायें और केंसर रोग की असह्य शारीरिक वेदना से तुम जूझ रहे थे, तब किस विचारधारा के आलंबन से आप स्वयं को संभाल सके, मन को संतुलित रख पाये? आखिर मोहनी ने तुम्हें मँझधार में तो छोड़ ही दिया था न! ऐसी स्थिति में सामान्य जन तो बुरी तरह घबरा जाते हैं, होश-हवास खो बैठते हैं, हृदयाघात से उनका प्राणान्त तक हो जाता है, परन्तु आपके माथे पर तो एक सिकुड़न तक दिखाई नहीं दी।
मुझसे आपकी वह दुःखद स्थिति छिपी हुई नहीं है। मैं उन सब हालातों का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। जब तुम रोग शैया पर पड़े मरणासन्न स्थिति में थे तब मेरी बेटी असाता तुम्हारे साथ ऐसी आँख मिचौनी कर रही थी कि तुम्हारे परिजन-पुरजन तो तुम्हारे जीवन से निराश हो ही गये थे, डॉक्टरों ने भी भगवान का नाम सुनाने की सलाह दे दी थी; फिर भी
(55)